Saturday 29 September 2012

Thursday 20 September 2012

संकल्प गान

 राघवेन्द्र सिंह कुशवाहा द्वारा रचित एक

संकल्प गान

इंसानियत के रास्ते पे चलकर
जहाँ एक नया हम बनायें
औरों के अश्कों को धोकर
सपने दूँ सुंदर नयन में
फासले दिलों का मिटाकर
दीये प्रेम का हम जलायें

इंसानियत के ...
सागर से गहरा आसमां से भी ऊँचा
हौसला मचलता हो मन में
बहे शांति धारा ह्रदय में
ज्ञान की रोशनी में हम नहायें
आगे बढ़े सबको लेकर
पूरी दुनिया को घर हम बनायें
इंसानियत के ...

Saturday 21 July 2012

दे दो अब तो अच्छी  शिक्षा 
बच्चे मांग रहे  सब  भिक्षा 
                                      -बदलाव अभियान 

Wednesday 18 July 2012


साम्प्रदायिक हिंसा के मूल में है धर्म की राजनीति

By | July 16, 2012 at 8:03 pm | No comments | आपकी नज़र
सद्भाव और शांति का जश्न

-राम पुनियानी

साम्प्रदायिक हिंसा सभी दक्षिण एशियाई देशों का नासूर है। भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत अंग्रेजों के आने के साथ हुई। अपनी “फूट डालो और राज करो“ की नीति के तहत, अंग्रेजों ने इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया और समाज के वे तबके, जो अपने सामंती विशेषाधिकारों को बचाए रखना चाहते थे,  ने इतिहास के साम्प्रदायिक संस्करण और धर्म का इस्तेमाल अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए करना शुरू कर दिया। हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो“ की नीति को सफल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। साम्प्रदायिक हिंसा, भारत की सड़कों और गलियों और यहां तक कि गांवों तक फैल चुकी है। इसके विस्तार के पीछे कई कारण हैं परंतु यह निर्विवाद है कि इसने समाज को घोर कष्ट और दुःख दिए हैं। कई सामाजिक संगठन और व्यक्ति, अपने-अपने स्तर पर, यह कोशिश करते आ रहे हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा की आग को हमेशा के लिए बुझा दिया जाए और समाज में सद्भाव और शांति की स्थापना हो।
इस सिलसिले में अहमदाबाद में 1 जुलाई को आयोजित “शांति एवं सद्भावना दिवस“ इसी दिशा में एक प्रयास था। इस दिन, वसंत-रजब की पुण्यतिथि थी। वसंतराव हेंगिस्ते और रजब अली लखानी दो मित्र थे जो साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम करते थे। विभाजन के बाद अहमदाबाद में भड़की भयावह साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान वे शांति स्थापना की कोशिशों में लगे हुए थे। शहर के एक हिस्से में दंगे की खबर मिलने के बाद वे वहां पहुंचे। नफरत की आग में जल रही जुनूनी भीड़ ने उन दोनों की जान ले ली। उनके शहादत के दिन, गुजरात में अनेक संगठन अलग-अलग आयोजन करते रहे हैं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कई असाधारण रूप से साहसी व्यक्तियों, चिंतकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने साम्प्रदायिक शांति की वेदी पर अपनी बलि दी है। इस सिलसिले में गणेशशंकर विद्यार्थी का नाम तुरंत हम सब के ध्यान में आता है। वे कानपुर में सन् 1931 में साम्प्रदायिक हिंसा रोकने के प्रयास में मारे गए थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता अत्यंत महत्वपूर्ण थी। जब पूरा देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति का जश्न मना रहा था तब गांधीजी नोआखली और बंगाल के अन्य स्थानों में दंगों की आग को शांत करने के प्रयास में लगे हुए थे। गांधीजी एक महामानव थे। उनके लिए उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा का कोई महत्व नहीं था-महत्व था पागल भीड़ को सही रास्ता दिखाने का। यही कारण है कि ब्रिटिश साम्राज्य के आखिरी वाईसराय और स्वतंत्र भारत के पहले गर्वनर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने उन्हें “एक आदमी की सेना“ कहा था।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तरह के असाधारण साहस और प्रतिबद्धता के प्रदर्शन के अनेक  उदाहरण हमारे देश में होंगे। ऐसे सभी व्यक्तियों को सम्मान से याद रखा जाना ज़रूरी है। उनकी जयंतियां और पुण्य तिथियां मनाना एक औपचारिकता मात्र नहीं होनी चाहिए। हमें उनके मूल्यों से कुछ सीखना होगा। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि आज के भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का बोलबाला बढ़ता जा रहा है और उसकी प्रकृति और स्वरूप में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं। सन् 1980 के दशक में व उसके बाद उत्तर भारत के अनेक शहरों में गंभीर साम्प्रदायिक हिंसा हुई। मेरठ, मलियाना, भागलपुर और दिल्ली के दंगों ने विभाजन के बाद हुई साम्प्रदायिक हिंसा की यादें ताजा कर दीं। नैल्ली और दिल्ली में हुई हिंसा में भारी संख्या में निर्दोष लोगों ने अपनी जानें गंवाईं। सन् 1992-93 के मुंबई दंगों से देश को यह स्पष्ट चेतावनी मिली कि हमारे शहरों में अंतर्सामुदायिक रिश्तों में जहर घुलता जा रहा है। मुसलमानों के बाद एक अन्य अल्पसंख्यक समुदाय-ईसाई-को निशाना बनाया जाने लगा। पास्टर स्टेन्स की हत्या और उसके बाद कंधमाल में हुई हिंसा ने कईयों की आंखें खोल दीं।
साम्प्रदायिक हिंसा के मूल में है धर्म की राजनीति। निहित स्वार्थी ताकतें अपने राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेन्डे को धर्म की चासनी में लपेटकर लागू करना चाहती हैं। दुर्भाग्यवश, भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का दौर-दौरा, वैश्विक स्तर पर साम्राज्यवादी ताकतों के तेल संसाधनों पर कब्जा करने के षड़यंत्र के समांनांतर चल रहा है। साम्राज्यवादी ताकतें, धर्म के नाम पर कट्टरवाद और आतंकवाद को प्रोत्साहन  दे रही हैं। साम्राज्यवादी ताकतों ने दुनिया के धार्मिक समुदायों में से एक बड़े समुदाय का दानवीकरण कर दिया है। इस प्रक्रिया में “सभ्यताओं के गठजोड़“ का स्थान “सभ्यताओं के टकराव“ ने ले लिया है। निहित स्वार्थी ताकतें सभ्यताओं के टकराव के सिद्धांत की पोषक और प्रचारक हैं। यह सिद्धांत, मानव इतिहास को झुठलाता है। यह इस तथ्य को नकारता है कि मानव समाज की प्रगति के पीछे विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का गठजोड़ रहा है। जहां शासक और श्रेष्ठि वर्ग अपनी शक्ति और संपदा की बढोत्तरी के लिए संघर्ष करते रहे वहीं पूरी दुनिया के आमजन एक-दूसरे के नजदीक आए, आपस में घुले-मिले और उन्होंने एक-दूसरे से सीखा-सिखाया। चाहे खानपान हो, पहनावा, भाषा, साहित्य, वास्तुकला या धार्मिक परंपराएं-सभी पर अलग-अलग संस्कृतियों और सभ्यताओं की छाप देखी जा सकती है। मानव सभ्यता की प्रगति को उर्जा दी है सामाजिक मेलजोल के इंजिन ने।
धर्म के नाम पर की जाने वाली विभाजक राजनीति की शुरूआत होती है मानव जाति के वर्गीकरण का आधार सामाजिक-आर्थिक कारकों के स्थान पर धर्म को बनाने से। मानव समाज के जो विभिन्न तबके, स्तर या समूह हैं, उनके मूल में हैं आर्थिक-सामाजिक कारक। इस यथार्थ को झुठलाकर कुछ ताकतें यह सिद्ध करने में जुटी हुई हैं कि धार्मिक कर्मकाण्डों की विभिन्नता, मानव जाति को अलग-अलग हिस्सों में बांटती है। समाज को एक करने वाले मुद्दों को पीछे खिसकाकर, समाज को बांटने वाले मुद्दों को बढ़ावा दिया जा रहा है। साम्प्रदायिक हिंसा का आधार होता है “दूसरे से घृणा करो“ का सिद्धांत। यही दुष्प्रचार एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य की जान सिर्फ इसलिए लेने की प्रेरणा देता है कि वह दूसरे धर्म में विश्वास रखता है। इस तरह की हिंसा से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता है और अलग-अलग समुदाय अपने-अपने मोहल्लों में सिमटने लगते हैं। केवल अपने धर्म के मानने वालों के बीच रहने से मनुष्यों का दृष्टिकोण संकुचित होता जाता है और दूसरे समुदायों के बारे में फैलाए गए मिथकों पर वह और सहजता से विश्वास करने लगता है। हिंसा-ध्रुवीकरण-अपने अपने मोहल्लों में सिमटना-संकुचित मानसिकता में बढोत्तरी का यह दुष्चक्र चलता रहता है। इसी दुष्चक्र के चलते हमारे देश में अल्पसंख्यकों को समाज के हाशिए पर पटक दिए जाने के अनेक उदाहरण सामने आ रहे हैं।
समाज में मानवता की पुनस्र्थापना का संघर्ष लंबा और कठिन है। विभिन्न धर्मों के हम सब लोगों की एक ही सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत है और हमारी ज़रूरतें तथा महत्वाकांक्षाएं भी समान हैं। बेहतर समाज बनाने की हमारी कोशिश में सिर्फ एक चीज आड़े आ रही है और वह है धर्म-आधारित राजनीति से उपजी घृणा और जुनून। इस जुनून को पैदा करने के लिए भावनात्मक मुद्दों को उछाला जाता है। इस बात की गहन आवश्यकता है कि समाज के सोचने के ढंग को बदला जाए। हम सब पहचान-आधारित संकुचित मुद्दों की बजाए उन मुद्दों पर विचार करें जिनका संबंध समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों और उन्हें जीवनयापन के साधन मुहैय्या कराने से है। अल्पसंख्यकों के बारे में फैलाए गए मिथकों से मुकाबला किया जाना जरूरी है।   हमारी मिली-जुली संस्कृति पर जोर दिया जाना आवश्यक है। हमें बात करनी होगी भक्ति और सूफी परंपराओं की, हमें याद रखना होगा गांधी, गणेशशंकर विद्यार्थी, वसंत-रजब और उनके जैसे असंख्यों के मूल्यों को। शांति और सद्भाव की अपनी पुरानी परंपरा को पुनर्जीवित करने के प्रयासों को हम सलाम करते हैं। हमें भरोसा है कि यही राह हमें प्रगति और शांति की ओर ले जाएगी।
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण: अमरीश हरदेनिया) 
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

राम पुनियानी
राम पुनियानी(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

Thursday 26 April 2012

व्यस्त लोगों के लिये ध्यान osho

जानने के लिए अपने श्वास के प्रति सजग हों।

" जब तुम कह रहे हो कि तुम खुश हो और तुम खुश नहीं हो, तो तुम्हारी श्वास अनियमित होगी।श्वास सहज नहीं होगी।यह असंभव है।"

तुम सत्य को झुठला नहीं सकते। बेहतर होगा कि तुम इसका सामना करो, बेहतर होगा कि तुम इसे स्वीकार करो, बेहतर होगा कि तुम इसे जीयो। एक बार तुम सच्चा, प्रामाणिक जीवन जीना शुरु करो-- अपना वास्तविक चेहरा-- तो धीरे-धीरे सभी दुख तिरोहित हो जाएंगे क्योंकि संघर्ष समाप्त हो जाता है और अब तुम विभाजित नहीं रहते। तुम्हारी वाणी लयबद्ध हो जाती है, तुम्हारा पूरा अस्तित्व वाद्य-वृंद बन जाता है। अभी तो जब तुम कुछ कहते हो तो तुम्हारा शरीर कुछ और कहता है; जब तुम्हारी जुबान कुछ और कहती है तो तुम्हारी आंखें साथ-साथ कुछ और कहती चली जाती हैं।

बहुत बार लोग यहां आते हैं और मैं उनसे पूछता हूं, "कैसे हो?" तो वे कहते हैं," हुम तो बहुत खुश हैं।´ मुझे तो विश्वास ही नहीं होता क्योंकि उनके चेहरे इतने बुझे से होते हैं-- न कोई उल्लास, न कोई प्रफुल्लता। उनकी आंखों में न कोई चमक, न कोई रोशनी। और जब वे कहते हैं,"हम खुश हैं" तो ´खुश´ शब्द भी खुश प्रतीत नहीं होता। ऐसा लगता है जैसे वे इसे घसीट रहे हों। उनका लहज़ा, उनकी आवाज़, उनका चेहरा, उनके बैठने या खड़े होने का ढंग-- सब कुछ इसे झुठलाता है, कुछ और ही कहता है। इन लोगों की ओर गौर करना। जब वे कहते हैं कि वे खुश हैं तो गौर करना। उनकी भाव-भंगिमा पढ़ना। क्या वे सच में खुश हैं? और अचानक तुम पाओगे कि उनका एक हिस्सा कुछ और ही कह रहा है।

और फिर धीरे-धीरे खुद को देखो। जब तुम कह रहे हो कि तुम खुश हो और हो नहीं तो आपका श्वास अनियमित होगा। आपका श्वास नियमित नहीं हो सकता। यह असंभव है। क्योंकि सत्य यह था कि तुम खुश नहीं थे। यदि तुमने कहा होता, "मैं अप्रसन्न हूं" तो तुम्हारा श्वास सहज रहता। कोई संघर्ष न होता। पर तुमने कहा,"मैं खुश हूं।" तत्क्षण तुमने कुछ दबाया-- उसे, जो बाहर आ रहा था, तुमने उसे भीतर धकेला। इसी संघर्ष में तुम्हारे श्वास की गति बदल जाती है, यह लयबद्ध नहीं रहता। तुम्हारा चेहरा गरिमापूर्ण नहीं रहता, तुम्हारी आंखें चालाक हो जाती हैं।

पहले दूसरों को देखो क्योंकि दूसरों को देखना अधिक आसान होगा। तुम उनको लेकर अधिक निरपेक्ष रह पाओगे। और जब तुम उनके लक्षण पा लोगे तो उन्हीं लक्षणों को स्वयं पर लागू करना। और देखना-- जब तुम सच बोलते हो तो तुम्हारी आवाज़ में संगीत की मधुरता होती है; जब तुम असत्य बोलते हो तो तुम्हारा स्वर कर्कश-सा होता है। जब तुम सत्य बोलते हो तो तुम संयुक्त, सुगठित होते हो; जब तुम असत्य बोलते हो तो तुम संयुक्त नहीं रहते, संघर्ष उठता है।

इन सूक्षम घटनाओं को देखें क्योंकि वे संयुक्त या असंयुक्त होने का ही परिणाम हैं। जब भी तुम संयुक्त हो और भटके हुए नहीं हो, जब भी तुम एक हो, योग में हो, अचानक तुम देखते हो कि तुम खुश हो। ´ योग ´शब्द का यही अर्थ है। ´योगी´ का यही अर्थ है; वह जो संयुक्त है, योग में है; जिसके सभी हिस्से परस्पर-संबंधित,हैं न कि परस्पर-विरोधी, वे परस्पर-निर्भर हैं न कि परस्पर-संघर्ष में, एक दूसरे से समरस। उसका अस्तित्व मैत्रीपूर्ण हो जाता है। वह पूर्ण होता है।

कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी विशेष घड़ी में तुम एक हो जाते हो। सागर को देखो, इसका अत्यंत शोरगुल-- और तुम अपना विभाजन, अपना बंटवारा भूल जाते हो; तुम विश्रांत हो जाते हो। या हिमालय पर जाते हुए पर्वत पर ताज़ा बर्फ को देख कर अचानक एक ठंडक-सी तुम्हें घेर लेती है और तुम्हें झूठा होने की ज़रूरत नहीं रहती क्योंकि वहां झूठा होने के लिए कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है। तुम संयुक्त हो जाते हो। या मधुर संगीत को सुनते हुए, तुम संयुक्त हो जाते हो।

जब भी, कैसी भी स्थिति में, तुम एक होते हो, एक तरह की शांति, प्रफुल्लता, आनंद तुम्हारे भीतर उठता है, तुम्हें घेर लेता है। तुम भर जाते हो।

इन घड़ियों की प्रतीक्षा करने की कोई ज़रूरत नहीं है-- ये घड़ियां आपका वास्त्विक जीवन बन सकती हैं। ये असाधारण पल साधारण पल बन सकते हैं-- ज़ेन का पूरा प्रयास यही है। तुम बहुत साधारण जीवन में भी असाधारण जीवन जी सकते हो: लकड़ी काटते हुए, कुएं से पानी लाते हुए, तुम पूरी तरह विश्रांत रह सकते हो। फर्श साफ करते हुए, भोजन बनाते हुए, कपड़े धोते हुए तुम पूर्णतया विश्रांत रह सकते हो-- क्योंकि सारा प्रश्न तुम्हारे कार्य को पूर्णतया, हंसते- खेलते, प्रफुल्लता से करने का है।

ओशो, डैंग डैंग डोको डैंग: ज़ेन पर प्रवचन

Sunday 22 April 2012

विडंबना

विडंबना

लोग मानते हैं कि
भगवान की मर्जी बगैर
एक पत्ता भी नही हिलता
पर मैं नही मानता
रोज़ बहुत कुछ
ऐसा होता है
जिसे भगवान तो क्या
भला आदमी भी पसंद नहीं करता ।
चोर उचक्के अमीर बन रहे हैं
अच्छे भले फटेहाल हो रहे हैं
काली करतूत वाले सफेदपोश बनकर
सत्ता से मौज उड़ा रहे हैं ।
बच्चे अनाथ हो रहे हैं
औरतों की मांगे सुनी हो रही हैं
बलात्कार, अपहरण , हत्या, तो सरेआम है
कुव्यवस्था की हद हो गई है ।
फिर भी लोग कह रहे हैं
भगवान की इच्छा के बिना
कोई कुछ भी नहीं कर सकता
है कोई जो कह सके मेरे अलावा ?
या तो इस कथन में दम नहीं
या फिर कोई भगवान नहीं

Thursday 19 April 2012

बिहार की चौपट शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान

बिहार की चौपट शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान -२६ मार्च २०१२ से २५ अप्रैल २०१२

by Raghwendra Singh Kushwaha on Tuesday, February 28, 2012 at 7:45am ·
शैक्षणिक व्यवस्था से ही किसी सरकार के असली नीयत का पता चलता है .बिहार की सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था चौपट हो चुकी है सरकारी स्कूलों व् कालेजों में पढ़ाई नहीं होने के कारण कुकुरमुत्ता की तरह निजी स्कूल,कॉलेज,कोचिंग और ट्युशन सेंटर बढ़ता जा रहा है.इन संस्थानों की मनमानी की वजह से अभिभावकों एवं छात्रों को कई तरह की परेशानियों का सामना करना परता है.सरकार
के किसी कायदे कानून को नहीं मानते है उलटे सरकार ही इनके आगे पुरी तरह झुक गई है.
प्राथमिक,मध्य,एवं उच्च विद्यालयों में योग्य शिक्षकों का घोर अभाव है. शिक्षकों के वेतन विसंगतियों की वजह से भी शिक्षा पर बुरा असर परा है .शिक्षा परियोजना से कई तरह की लूट की योजनाओं का निर्माण होता है .मध्याह्न भोजन ,पोशाक और साईकिल योजना में भारी लूट -पाट है .
कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी की वजह से कई विभाग बंद पड़े है .राज्य में मेडिकल, इंजीनियरिंग और तकनीकी शिक्षण संस्थान न के बराबर है .इसी वजह से मेधावी छात्रों का दूसरे राज्यों में पलायन होता है और निजी कोचिंग और ट्यूशन का बाजार गरम है .मनमानी फीस से लोगों का कचूमर निकल रहा है .
सरकारी शिक्षण संस्थानों का स्तर इतना गिर गया है कि अब यहाँ से कोई चपरासी भी नहीं बन सकता है .समान शिक्षा आयोग को सिफारिशें धुल चाट रही है .२८ वर्षों से विश्वविद्यालयों में छात्र संघों के चुनाव नहीं होने से राज्य में राजनीतिक कौशल वाले नेतृत्व का निर्माण नहीं हो रहा है .स्कूल व कॉलेज के बगल में और हर जगह शराब की खुली बिक्री से युवा पीढ़ी बड़ी तेजी से बर्बादी के कगार पर है .इन सब चीजों कि वजह से बिहार में अराजकता का माहौल बन गया है और राज्य का भविष्य अंधकारमय हो गया है.
तो आइए इन सब चीजों से मुक्ति और अपनी इच्छा और आकांक्षा के अनुरुप गुणवत्ता पूर्ण शैक्षणिक व्यवस्था व गौरवशाली बिहार के निर्माण के लिए  छात्र लोजपा द्वारा चलाये जा रहे हस्ताक्षर अभियान  कार्यक्रम में भारी संख्या में भाग लें...

तेरा भी इतिहास बनेगा

  तेरा भी इतिहास बनेगा           
तेरी ख़ामोशी ही 
तेरी  बदहाली का कारण है 
तेरे  हुंकार में ही 
सारी  मुसीबतों का निवारण है .

तू इंतजार मत कर 
किसी फ़रिश्ते का 
न वो आया है न आएगा
तेरी  बगावत ही 
नया इन्कलाब लाएगा .

हर कोई अपनी परेशानी की 
लड़ाई से ही महान हुआ है
सीता हरण के बाद ही 
राम ने रावण को मारा 
माता-पिता के प्रतिशोध में 
कृष्ण ने कंस का वध किया 
ट्रेन से धक्का खाकर 
गाँधी ने अंग्रेजो को भगाया.

तू भी शुरू कर अपनी लड़ाई
तेरा भी इतिहास बनेगा 
संघर्ष की बुनियाद पर 
एक नया समाज बनेगा ...

Tuesday 14 February 2012



ज़माना बदलता नहीं अपने आप

ज़माना बदलता नहीं अपने आप 
          -राघवेन्द्र सिंह कुशवाहा

 कैसा लगता है आपको 
जब किसी के आलीशान मकान में 
हवाई जहाज उतरता हो 
और किसी का पूरा परिवार 
ठिठुरता हुआ सड़क पर जिंदगी गुजरता हो ...

 कैसा लगता है आपको
जब किसी की छोटी-बड़ी  पार्टी में 
सैकड़ो टोकड़ी भोजन फेंका जाता हो 
और उसी पार्टी के बाहर भूख से तडपते बच्चे को 
रोटी के एक टुकड़े के लिए थप्पर लगती हो...

कैसा लगता है आपको 
जब किसी की मामूली इलाज पर 
महंगे अस्पताल में लाखों रु.खर्च होता हो
और कोई गंभीर बीमारी में भी 
दवा के बगैर तड़प तड़प मरता हो 

कैसा लगता है आपको
जब कोई बच्चा हर रोज नया कपड़ा
पहन पहन कर फेंकता हो
और कोई बच्चा नंगे बदन
मुट्ठी बांधे दाँत किटकिटता हो

कैसा लगता है आपको
जब किसी युवक के हाथ में
महंगा मोबाइल और आई पॉड हो
और किसी के हाथ में
रद्दी चुनने की टोकड़ी

कैसा लगता है आपको
जब कोई लड़की हर रोज
दोस्त बदले तो शान हो
और कोई लड़की सिर्फ मुस्करा दे तो
उसकी जगह श्मशान हो

ऐसे हालात आप अक्सर
सुनते,देखते और भोगते हैं
फिर भी इनके खिलाफ
आप कुछ भी नहीं सोचते हैं

ज़रा सोचिये और बदलिए अपने आप को
वर्ना, ज़माना बदलता नहीं अपने आप

Wednesday 4 January 2012

सामाजिक जागरण अभियान

           
    पूरी दुनिया में कुनियोजित विकास के नारों से कई तरह की विसंगतियाँ पैदा हो गई है ,जिससे आनेवाले दिनों की स्थिति और बदतर होनेवानी है .भारत की परिस्थिति तो जग जाहिर है.विश्व गुरु कहा जानेवाला यह देश आज कहाँ खड़ा है?यह गंभीर प्रश्न हम सबों के सामने है .
                       अगर हम देश की वर्तमान दुर्दशा पर धैर्य पूर्वक गहराई से सोचें तो इसके कई कारणों में प्रमुख रूप से आम आदमी की अज्ञानता और खास आदमी की मनमानी के अलावा बीच के लोगों की उदासीनता  पर नज़र जाती है.
                       आखिर कबतक हम यों ही खामोश होकर यह सब देखते रहेंगे ? वतन पर मर मिटने वाले शहीदों ने इसलिए हमलोगों के हवाले देश को नहीं किया था की आने वाली पीढ़ी हमें इस बात पर गाली दें की पुरखों की इस धरोहर की हिफाजत हम नहीं कर सकें.
                       यदि आप चाहते है कि हालात में बदलाव आये तो हाथ पर हाथ रखकर बैठने के  बजाये कमर कसकर मजबूत इरादों के साथ आगे आये. हम आपके  साथ चलने का इंतजार कर रहे है ....
                         हम सभी अपनी उदासीनता छोड़कर आम आदमी की अज्ञानता को दूर कर खास आदमी की मनमानी को रोकते हुये समाज को सम्यक समृधि की ओर ले जाते हुये लोकतान्त्रिक मूल्यों की  पूरी तरह  से रक्षा करें ताकि प्रत्येक आदमी का समग्र विकास हो सके जिससे देश और दुनिया में अमन कायम हो सके .
                           समस्याओं को गिनवाने में नहीं बल्कि उसके निराकरण की दिशा में सार्थक पहल होनी चाहिए . इसी क्रम में हम समाज के हर उम्र और वर्ग के लोगों को साथ जोड़कर एक ऐसा माहौल बनाये ,जहाँ परस्पर प्रेम और सोहार्द की अविरल धारा बहती रहे ...  
                            तो आइये SOCIETY OF SOCIAL OPINION (SOSO) नामक एक संस्था आपके इन विचारों को मूर्त रूप देने में सहयोग करने को उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही है ... संपर्क -9955773232
नोट -आपको यह विचार अच्छा लगे तो मित्रों को शेयर करे ...








Tuesday 3 January 2012


आओ बनाये ऐसी एक दुनिया

                                                                                                         
मेरे सपनों में अक्सर
ऐसी एक  दुनिया आती है
जहाँ सब लोगों में प्रेम है                                                                                                       
और हर जगह शांति है.                                                        

मैं शामिल हूँ उस दुनिया की

कई ऐसी बाराती में                                                                                                                      
   
जहाँ ब्राह्मण  की बेटी से
डोम के बेटा की शादी है.

मैंने खाया है कई बार

चमार के घर भोज वहां

लाला ने  खाना बनाया जहाँ 
राजपूत ने पत्तल उठाया वहां .

कुशवाहा को जूता बनाते हुए
यादव को झारू लगते हुए
बनिया को भंगिगीरी करते हुए
देखा है वहां के नजारों में मैंने 
मुसहर  को पूजा कराते हुए .

कैसी हसीन दुनिया है वो
जहाँ मौलवी भी कीर्तन करते है
पंडित नमाज़ पढ़ते है वहां
पादरी व सिक्ख नहीं लडते है.

आओं बनाये हम वैसी ही दुनिया 
जहाँ हो मौजूद ये सारी खूबियाँ .

              -राघवेन्द्र सिंह कुशवाहा