Wednesday 12 October 2016

डा.राम मनोहर लोहिया की पुण्य तिथि पर विशेष


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आरम्भिक जीवन एवं शिक्षा

डॉ॰ राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जनपद में (वर्तमान-अम्बेदकर नगर जनपद) अकबरपुर नामक स्थान में हुआ था। उनके पिताजी श्री हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। ढाई वर्ष की आयु में ही उनकी माताजी (चन्दा देवी) का देहान्त हो गया।। उन्हें दादी के अलावा सरयूदेई, (परिवार की नाईन) ने पाला। टंडन पाठशाला में चौथी तक पढ़ाई करने के बाद विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल में दाखिल हुए।
उनके पिताजी गाँधीजी के अनुयायी थे। जब वे गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। इसके कारण गांधीजी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ। पिताजी के साथ 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए।
बंबई के मारवाड़ी स्कूल में पढ़ाई की। लोकमान्य गंगाधर तिलक की मृत्यु के दिन विद्यालय के लड़कों के साथ 1920 में पहली अगस्त को हड़ताल की। गांधी जी की पुकार पर 10 वर्ष की आयु में स्कूल त्याग दिया। पिताजी को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आंदोलन के चलते सजा हुई। 1921 में फैजाबाद किसान आंदोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात हुई। 1924 में प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस के गया अधिवेशन में शामिल हुए। 1925 में मैट्रिक की परीक्षा दी। कक्षा में 61 प्रतिशत नंबर लाकर प्रथम आए। इंटर की दो वर्ष की पढ़ाई बनारस के काशी विश्वविद्यालय में हुई। कॉलेज के दिनों से ही खद्दर् पहनना शुरू कर दिया। 1926 में पिताजी के साथ गौहाटी कांग्रेस अधिवेशन में गए। 1927 में इंटर पास किया तथा आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता जाकर ताराचंद दत्त स्ट्रीट पर स्थित पोद्दार छात्र हॉस्टल में रहने लगे। विद्यासागर कॉलेज में दाखिला लिया। अखिल बंग विद्यार्थी परिषद के सम्मेलन में सुभाषचंद्र बोस के न पहुंचने पर उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की। 1928 में कलकता में कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए। 1928 से अखिल भारतीय विद्यार्थी संगठन में सक्रिय हुए। साइमन कमिशन के बहिष्कार के लिए छात्रों के साथ आंदोलन किया। कलकत्ता में युवकों के सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष तथा सुभाषचंद्र बोस और लोहिया विषय निर्वाचन समिति के सदस्य चुने गए। 1930 में द्वितीय श्रेणी में बीए की परीक्षा पास की।

यूरोप गमन

1930 जुलाई को लोहिया अग्रवाल समाज के कोष से पढ़ाई के लिए इंग्लैंड रवाना हुए। वहाँ से वे बर्लिन गए। विश्वविद्यालय के नियम के अनुसार उन्होंने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो॰ बर्नर जेम्बार्ट को अपना प्राध्यापक चुना। 3 महीने में जर्मन भाषा सीखी। 12 मार्च 1930 को गांधी जी ने दाण्डी यात्रा प्रारंभ की। जब नमक कानून तोड़ा गया तब पुलिस अत्याचार से पीड़ित होकर पिता हीरालाल जी ने लोहिया को विस्तृत पत्र लिखा। 23 मार्च कोलाहौर में भगत सिंह को फांसी दिए जाने के विरोध में लीग ऑफ नेशन्स की बैठक में बर्लिन में पहुंचकर सीटी बजाकर दर्शक दीर्घा से विरोध प्रकट किया। सभागृह से उन्हें निकाल दिया गया। भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे बीकानेर के महाराजा द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने पर लोहिया ने रूमानिया की प्रतिनिधि को खुली चिट्ठी लिखकर उसे अखबारों में छपवाकर उसकी कॉपी बैठक में बंटवाई। गांधी इर्विन समझौते का लोहिया ने प्रवासी भारतीय विद्यार्थियों की संस्था "मध्य यूरोप हिन्दुस्तानी संघ" की बैठक में संस्था के मंत्री के तौर पर समर्थन किया। कम्युनिस्टों ने विरोध किया। बर्लिन के स्पोटर्स पैलेस में हिटलर का भाषण सुना। 1932 में लोहिया ने नमक सत्याग्रह विषय पर अपना शोध प्रबंध पूरा कर बर्लिन विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।

स्वदेश आगमन एवं स्वतंत्रता संग्राम

1933 में मद्रास पहुंचे। रास्ते में सामान जब्त कर लिया गया। तब समुद्री जहाज से उतरकर हिन्दु अखबार के दफ्तर पहुंचकर दो लेख लिखकर 25 रुपया प्राप्त कर कलकत्ता गए। कलकत्ता से बनारस जाकर मालवीय जी से मुलाकात की। उन्होंने रामेश्वर दास बिड़ला से मुलाकात कराई जिन्होंने नौकरी का प्रस्ताव दिया, लेकिन दो हफ्ते साथ रहने के बाद लोहिया ने निजी सचिव बनने से इनकार कर दिया। तब पिता जी के मित्र सेठजमुनालाल बजाज लोहिया को गांधी जी के पास ले गए तथा उनसे कहा कि ये लड़का राजनीति करना चाहता है।
कुछ दिन तक जमुनालाल बजाज के साथ रहने के बाद शादी का प्रस्ताव मिलने पर शहर छोड़कर वापस कलकत्ता चले गए। विश्व राजनीति के आगामी 10 वर्ष विषय पर ढाका विश्वविद्यालय में व्याख्यान देकर कलकत्ता आने-जाने की राशि जुटाई। पटना में 17 मई 1934 को आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हॉल में इकट्ठे हुए, जहां समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया। यहां लोहिया ने समाजवादी आंदोलन की रूपरेखा प्रस्तुत की। पार्टी के उद्देश्यों में लोहिया ने पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य जोड़ने का संशोधन पेश किया, जिसे अस्वीकार कर दिया गया। 21-22 अक्टूबर 1934 को बम्बई के बर्लि स्थित 'रेडिमनी टेरेस' में 150 समाजवादियों ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य चुने गए। कांग्रेस सोशलिस्ट सप्ताहिक मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए।
गांधी जी के विरोध में जाकर उन्होंने कांउसिल प्रवेश का विरोध किया। गांधी जी ने लोहिया के लेख पर दो पत्र लिखे। 1936 के मेरठ अधिवेशन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों के लिए पार्टी का दरवाजा खोल दिया। लोहिया बार-बार कम्युनिस्टों के प्रति सचेत रहने की चेतावनी जयप्रकाश नारायण जी एवं अन्य नेताओं को देते रहे। 1935 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जहां लोहिया को परराष्ट्र विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया जिसके चलते उन्हें इलाहाबाद आना पड़ा। 1938 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य चुने गए। उन्होंने कांग्रेस के परराष्ट्र विभाग के मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। 1940 में रामगढ़ कांग्रेस के कम्युनिस्टों को पार्टी से निकालने का निर्णय लिया गया। 1939 में त्रिपुरी कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस को समाजवादियों ने समर्थन किया। डॉ॰ लोहिया तटस्थ बने रहे। लोहिया ने गांधी जी द्वारा यह कहे जाने पर की बोस का चुनाव मेरी शिकस्त है पर प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि यह प्रस्ताव गांधी जी से सम्मानपूर्वक आह्वान करता है कि उनकी शिकस्त नहीं हुई है। गांधी जी की इच्छानुसार सुभाषचंद्र बोस कार्यसमिति बनाने को तैयार नहीं हुए तथा नेहरू सहित अन्य कांग्रेस के नेताओं ने बोस के साथ कार्यसमिति में रहने से इंकार कर दिया तब बोस ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया तथा कांग्रेस से नाता तोड़ लिया।
लोहिया ने महायुद्ध के समय युद्धभर्ती का विरोध, देशी रियासतों में आंदोलन, ब्रिटिश माल जहाजों से माल उतारने व लादने वाले मजदूरों का संगठन तथा युद्धकर्ज को मंजूर तथा अदा न करने, जैसे चार सूत्रीय मुद्दों को लेकर युद्ध विरोधी प्रचार शुरू कर दिया। 1939 के मई महीने में दक्षिण कलकता की कांग्रेस कमेटी में युद्ध विरोधी भाषण करने पर उन्हें 24 मई को गिरफ्तार किया गया। कलकत्ता के चीफ प्रेसीडेन्सी मजिस्टे्रट के सामने लोहिया ने स्वयं अपने मुकदमे की पैरवी और बहस की। 14 अगस्त को उन्हें रिहा कर दिया गया। 9 अक्टूबर 1939 को कांग्रेस समिति के बैठक वर्धा में हुई जिसमें लोहिया ने समझौते का विरोध किया। उसी समय उन्होंने शस्त्रों का नाश हो नामक प्रसिद्ध लेख लिखा। 11 मई 1940 को सुल्तानपुर के जिला सम्मेलन में लोहिया ने कांग्रेस से 'सत्याग्रह अभी नहीं' नामक लेख लिखा। गांधी जी ने मूल रूप में लोहिया द्वारा दिए गए चार सूत्रों को स्वीकार किया।
7 जून 1940 को डॉ॰ लोहिया को 11 मई को दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में दिए गए भाषण के कारण गिरफ्तार किया गया। उन्हें कोतवाली में सुल्तानपुर में इलाहाबाद के स्वराज भवन से ले जाकर हथकड़ी पहनाकर रखा गया। 1 जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की धारा 38 के तहत दो साल की सख्त सजा हुई। सजा सुनाने के बाद उन्हें 12 अगस्त को बरेली जेल भेज दिया गया। 15 जून 1940 को गांधी जी ने 'हरिजन' में लिखा, कि 'मैं युद्ध को गैर कानूनी मानता हूं किन्तु युद्ध के खिलाफ मेरे पास कोई योजना नहीं है इस वास्ते मैं युद्ध से सहमत हूं।' 25 अगस्त को गांधी जी ने लिखा कि 'लोहिया और दूसरे कांग्रेस वालों की सजाएं हिन्दुस्तान को बांधने वाली जंजीर को कमजोर बनाने वाले हथौडे क़े प्रहार हैं। सरकार कांग्रेस को सिविल-नाफरमानी आरंभ करने और आखिरी प्रहार करने के लिए प्रेरित कर रही है। यद्यपि कांग्रेस उसे उस दिन तक के लिए स्थगित करना चाहती है जब तक इंग्लैंड मुसीबत में हो।' गांधी जी ने बंबई में कहा, कि 'जब तक डॉ॰ राममनोहर लोहिया जेल में है तब तक मैं खामोश नहीं बैठ सकता, उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालूम नहीं। उन्होंने हिंसा का प्रचार नहीं किया जो कुछ किया है उनसे उनका सम्मान बढ़ता है।' 4 दिसम्बर 1941 को अचानक लोहिया को रिहा कर दिया गया तथा देश के अन्य जेलों में बंद कांग्रेस के नेताओं को छोड़ दिया गया। 19 अप्रैल 1942 को हरिजन में लोहिया का लेख 'विश्वासघाती जापान या आत्मसंतुष्ट ब्रिटेन' गांधी जी द्वारा प्रकाशित किया गया। गांधी जी ने टिप्पणी की कि मेरी उम्मीद है कि सभी संबंधित इसके प्रति ध्यान देंगे।
सन् 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जहां लोहिया ने खुलकर नेहरू का विरोध किया। इसके बाद अल्मोड़ा जिला सम्मेलन में लोहिया ने 'नेहरू को झट पलटने वाला नट' कहा। गांधी जी के साथ एक सप्ताह रहकर लोहिया ने गांधी जी को वाइसराय के नाम पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया। जिसमें गांधी जी ने लिखा कि अहिंसानिष्ट सोशलिस्ट डॉ॰ लोहिया ने भारतीय शहरों को बिना पुलिस व फौज के शहर घोषित करने की कल्पना निकाली है। लोहिया जी के द्वारा दुनिया की सभी सरकारों को नई दुनिया की बुनियाद बनाने की योजना की कल्पना गांधी जी के सामने रखी गई, जिसमें एक देश की दूसरे देश में जो पूंजी लगी है उसे जब्त करना, सभी लोगों को संसार में कहीं भी आने-जाने व बसने का अधिकार देना, दुनिया के सभी राष्ट्रों को राजनैतिक आजादी तथा विश्व नागरिकता की बात कही गई थी। गांधी जी ने इसे हरिजन में छापा और अपनी ओर से समर्थन भी किया तथा अंग्रेजों के खिलाफ जल्दी लड़ाई छेड़ने को लेकर गांधी जी ने दस दिन रूकने के लिए लोहिया को कहा। दस दिन बाद 7 अगस्त 1942 को गांधीजी ने तीन घंटे तक भाषण देकर कहा, कि 'हम अपनी आजादी लड़कर प्राप्त करेंगे।' अगले दिन 8 अगस्त को 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव बंबई में बहुमत से स्वीकृत हुआ। गांधी जी ने करो या मरो का संदेश दिया।

भारत छोड़ो आन्दोलन

9 अगस्त १९४२ को जब गांधी जी व अन्य कांग्रेस के नेता गिरफ्तार कर लिए गए, तब लोहिया ने भूमिगत रहकर 'भारत छोड़ो आंदोलन' को पूरे देश में फैलाया। लोहिया, अच्युत पटवर्धन, सादिक अली, पुरूषोत्तम टिकरम दास, मोहनलाल सक्सेना, रामनन्दन मिश्रा, सदाशिव महादेव जोशी, साने गुरूजी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अरूणा आसिफअली, सुचेता कृपलानी और पूर्णिमा बनर्जी आदि नेताओं का केन्द्रीय संचालन मंडल बनाया गया। लोहिया पर नीति निर्धारण कर विचार देने का कार्यभार सौंपा गया। भूमिगत रहते हुए 'जंग जू आगे बढ़ो, क्रांति की तैयारी करो, आजाद राज्य कैसे बने' जैसी पुस्तिकाएं लिखीं। 20 मई 1944 को लोहिया जी को बंबई में गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के बाद लाहौर किले की एक अंधेरी कोठरी में रखा गया जहां 14 वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी। पुलिस द्वारा लगातार उन्हें यंत्रणा दी गई, 15-15 दिन तक उन्हें सोने नहीं दिया जाता था। किसी से मिलने नहीं दिया गया 4 महीने तक ब्रुश या पेस्ट तक भी नहीं दिया गया। हर समय हथकड़ी बांधे रखी जाती थी। लाहौर के प्रसिद्ध वकील जीवनलाल कपूर द्वारा हैबियस कारपस की दरखास्त लगाने पर उन्हें तथा जयप्रकाश नारायण को स्टेट प्रिजनर घोषित कर दिया गया। मुकदमे के चलते सरकार को लोहिया को पढ़ने-लिखने की सुविधा देनी पड़ी। पहला पत्र लोहिया ने ब्रिटिश लेबर पार्टी के अध्यक्ष प्रो॰ हेराल्ड जे. लास्की को लिखा जिसमें उन्होंने पूरी स्थिति का विस्तृत ब्यौरा दिया। 1945 में लोहिया को लाहौर से आगरा जेल भेज दिया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने पर गांधी जी तथा कांग्रेस के नेताओं को छोड़ दिया गया। केवल लोहिया व जयप्रकाश ही जेल में थे। इसी बीच अंग्रेजों की सरकार और कांग्रेस की बीच समझौते की बातचीत शुरू हो गई। इंग्लैंड में लेबर पार्टी की सरकार बन गई सरकार का प्रतिनिधि मंडल डॉ॰ लोहिया से आगरा जेल में मिलने आया। इस बीच लोहिया के पिता हीरालाल जी की मृत्यु हो गई। किन्तु लोहिया जी ने सरकार की कृपा पर पेरोल पर छूटने से इंकार कर दिया।
11 अप्रैल 1946 को लोहिया को आगरा जेल से रिहा कर दिया गया। 15 जून को लोहिया ने गोवा के पंजिम में 'गोवा मुक्ति आंदोलन' की पहली सभा ली। लोहिया को 18 जून को गोवा मुक्ति आंदोलन के शुरूआत के दिन ही गिरफ्तार कर लिया गया। 14 अगस्त 1946 को 'हरिजन' में गांधी जी ने लिखा कि, लोहिया को बधाई दी जानी चाहिए। 30 दिसम्बर 1946 को नवाखली में हिन्दु और मुसलमान के बीच के अविश्वास को दूर करने में गांधी जी के साथ विस्तृत कार्यक्रम तैयार किया। पूरे साल नवाखली, कलकत्ता, बिहार, दिल्ली सभी जगह लोहिया गांधी जी के साथ मिलकर साम्प्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशिश करते रहे। 9 अगस्त 1947 से लगातार हिंसा रोकने का प्रयास चलता रहा। 14 अगस्त की रात को हिन्दु-मुस्लिम भाई-भाई के नारों के साथ लोहिया ने सभा की। 31 अगस्त को वातावरण फिर बिगड़ गया, गांधी जी अनशन पर बैठ गए तब लोहिया ने दंगाईयों के हथियार इकट्ठे कराए। लोहिया के प्रयास से शांति समिति की स्थापना हुई तथा 4 सितम्बर को गांधी जी ने अनशन तोड़ा। 29 सितम्बर को बेलगांव में लोहिया को फिर गिरफ्तार कर लिया गया। 26, 27, 28 फ़रवरी 1947 को सोशलिस्ट पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में तटस्थ रहने का निर्णय लिया गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद

जनवरी 1947 में लोहिया ने नेपाली राष्ट्रीय कांग्रेस को स्थापित करने तथा राणाशाही के विरुद्ध सत्याग्रह प्रारंभ करने की पहल की। 25 जनवरी 1948 को बंबई हड़ताल को लेकर लोहिया जी ने गांधी जी से हड़ताल का समर्थन मांगा। 28 जनवरी को गांधी जी ने कहा कि कल आना कल पेट भर की बात होगी। 30 जनवरी को लोहिया जब बिड़ला भवन के लिए निकले तब उन्हें गांधी जी की हत्या की खबर सुनने को मिली। मार्च 1948 में नासिक सम्मेलन में सोशलिस्ट दल ने कांग्रेस से अलग होने का निश्चय किया। लोहिया की प्रेरणा से रियासतों की समाप्ति का आंदोलन 650 रिसासतों में समाजवादी चला रहे थे। 2 जनवरी 1948 को रीवा में 'हमें चुनाव चाहिए विभाजन रद्द करो' के नारे के साथ आंदोलन किया गया जिसमें पुलिस ने गोली चलाई 4 आंदोलनकारी शहीद हुए। 1949 को सोशलिस्ट पार्टी द्वारा लोहिया के नेतृत्व में नेपाली कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला के आमरण अनशन तथा नेपाल में राणाशाही के अत्याचार के खिलाफ सभा की गई। नेपाली दूतावास की ओर जब जुलूस बढ़ा तब लाठी चार्ज किया गया लोहिया को गिरफ्तार किया गया। 20 जून को देश भर में लोहिया दिवस मनाया गया। मुकदमे में दो महीने की कैद हुई। 3 जुलाई को उन्हें रिहा कर दिया गया।
सन् 1949 में पटना में सोशलिस्ट पार्टी का दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इसी सम्मेलन में लोहिया ने 'चौखंभा राज्य' की कल्पना प्रस्तुत की। पटना में 'हिन्द किसान पंचायत' की स्थापना भी हुई जिसका अध्यक्ष लोहिया को चुना गया। 25 नवम्बर 1949 को लखनऊ में एक लाख किसानों ने विशाल प्रदर्शन किया। 26 फ़रवरी 1950 को रीवा में 'हिन्द किसान पंचायत' का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ। दिल्ली में 3 जून 1951 को जनवाणी दिवस पर प्रदर्शन किया गया। 'रोजी-रोटी कपड़ा दो नहीं तो गद्दी छोड़ दो', प्रदर्शनकारियों का मुख्य नारा था। 14 जून 1951 को सागर स्टेशन में लोहिया को गिरफ्तार कर बेंगलूर के हवालात में बंद कर दिया गया। 3 जुलाई को लोहिया छूटे। 24 जुलाई को वे विश्व सरकार के समर्थकों के सम्मेलन में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम गए 17 साल बाद वे पुन: बर्लिन पहुंचे। लोहिया इंग्लैंड, पश्चिम अफ्रीका, दक्षिण पश्चिम एशिया के कई देशों में गए; इस्रायल से होकर 15 नवम्बर को स्वेदश लौटे।
1951 में लोहिया को 3 जुलाई को समाजवादियों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में बुलाया गया। सम्मेलन में जर्मनी, युगोस्लाविया, अमेरिका, हवाई, जापान, हांगकांग, थाईदेश, सिंगापुर मलाया, इंडोनेशिया तथा लंका भी गए। लोहिया विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टन से प्रिंसटन में मिले। आइंस्टीन ने कहा, कि 'किसी मनुष्य से मिलना कितना अच्छा होता है आदमी कितना अकेला पड़ जाता है।' लोहिया ने अमरीका में सैकड़ों स्थानों पर भाषण किए। उस समय उन्होंने एशिया की समस्त सोशलिस्ट पार्टियों का संगठन निर्मित करने का विचार बनाया। 25 मार्च से 29 मार्च 1952 में एशियाई सोशलिस्ट कान्फ्रेंस हुई, लेकिन इसमें लोहिया शामिल नहीं हो सके। जयप्रकाश नरायण भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता बन कर रंगून गए।
मई 1952 में पंचमढ़ी में सोशलिस्ट पार्टी का सम्मेलन हुआ। आम चुनाव में हार के बाद लोहिया ने चुनावों की पराजय की शव परीक्षा के बदले ठोस विचारों की ओर पार्टी को ले जाने का विचार दिया। गुजरात पार्टी सम्मेलन में इतिहास चक्र की नई व्याख्या लोहिया द्वारा प्रस्तुत की गई। 24-25 सितम्बर 1952 में सोशलिस्ट पार्टी की जनरल कौंसिल बैठक में किसान-मजदूर प्रजा पार्टी और सोशिलिस्ट पार्टी के विलय का निर्णय लिया गया। इस तरह प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ। 29 से 31 दिसम्बर 1953 को प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का पहला सम्मेलन इलाहाबाद में हुआ। वहां लोहिया ने इलाहाबाद थीसिस प्रस्तुत की। लोहिया को उनके मना करने के बावजूद पार्टी का राष्ट्रीय महामंत्री चुना गया। 13-14 मई 1954 को उत्तर प्रदेश प्रजा सोशलिस्ट पार्टी द्वारा नहर रेट की बढ़ोतरी के खिलाफ आंदोलन शुरू किया गया। 4 जुलाई 1954 को फारूखाबाद में वाणी स्वतंत्रता के संघर्ष को लेकर भाषण दिए जाने के कारण गिरफ्तार किया गया। नागपुर में 26-28 नवम्बर 1954 के बीच केरल गोली कांड पर विचार करने के लिए सम्मेलन हुआ। लोहिया केरल मंत्रीमंडल से इस्तीफा मांग चुके थे। 31 दिसम्बर 1955 तथा 1 जनवरी 1956 को सोशलिस्ट पार्टी का स्थापना हुई। लखनऊ में लोहिया के नेतृत्व में एक लाख किसानों का प्रदर्शन हुआ। 1956 में लोहिया ने "मैनकाइंड" नामक पत्रिका शुरू की। सोशिलिस्ट पार्टी का प्रथम वार्षिक अधिवेशन भारत के मध्य बिंदु मध्यप्रदेश के ग्राम सिहोरा में 28, 29, 30 दिसम्बर 1956 को हुआ। 2 नवम्बर 1957 को लोहिया क्रिमनल लॉ एमेंडमेंड एक्ट की धारा 7 की तहत डाकिए से कुछ कहने पर अकारण गिरफ्तार कर लिया गया। 12 नवम्बर 1958 को लोहिया पूर्वोतर के दौरे पर निकले, जहां उन्हें दौरा करने से रोक दिया गया।
एक साल बाद फिर उसी स्थान उर्वसियम (नेफा) से लोहिया ने पूर्वोत्तर में प्रवेश किया, जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 17 अप्रैल 1960 को कानुपर के सर्किट हाउस में अनाधिकृत प्रवेश करने के कारण अपराध बताकर उन्हें पुन: गिरफ्तार किया गया। 1961 में 'अंग्रेजी हटाओ आंदोलन' के दौरान लोहिया की सभा पर मद्रास में पत्थर बरसाये गए। 1961 में लोहिया एथेंस, रोम और काहिरा गए। 1962 में चुनाव हुआ लोहिया नेहरू के विरुद्ध फुलपुर में चुनाव मैदान में उतरे। 11 नवम्बर 1962 को कलकत्ता में सभा कर लोहिया ने तिब्बत के सवाल को उठाया। 1963 के फारूखाबाद के लोकसभा उपचुनाव में लोहिया 58 हजार मतों से चुनाव जीते। लोकसभा में लोहिया की तीन आना बनाम पन्द्रह आना की बहस अत्यंत चर्चित रही, जिसमें उन्होंने 18 करोड़ आबादी के चार आने पर जिंदगी काटने तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च करने का आरोप लगाया। 9 अगस्त 1965 को लोहिया को भारत सुरक्षा कानून के अन्तर्गत गिरफ्तार किया गया।

देहावसान

30 सितम्बर 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल अब जिसे लोहिया अस्पताल कहा जाता है को पौरूष ग्रंथि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया जहां 12 अक्टूबर 1967 को उनका देहांत 57 वर्ष की आयु में हो गया।

गैर-कांग्रेसवाद के शिल्पी

देश में गैर-कांग्रेसवाद की अलख जगाने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया चाहते थे कि दुनियाभर के सोशलिस्ट एकजुट होकर मजबूत मंच बनाए। लोहिया भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी थे और उनके अथक प्रयासों का फल था कि 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस की पराजय हुई, हालांकि केंद्र में कांग्रेस जैसे-तैसे सत्ता पर काबिज हो पायी। हालांकि लोहिया 1967 में ही चल बसे लेकिन उन्होंने गैर कांग्रेसवाद की जो विचारधारा चलायी उसी की वजह से आगे चलकर 1977 में पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकारी बनी। लोहिया मानते थे कि अधिक समय तक सत्ता में रहकर कांग्रेस अधिनायकवादी हो गयी थी और वह उसके खिलाफ संघर्ष करते रहे।

जैसी कथनी वैसी करनी

लोहिया के समाजवादी आंदोलन की संकल्पना के मूल में अनिवार्यत: विचार और कर्म की उभय उपस्थिति थी- जिसके मूर्तिमंत स्वरूप स्वयं डॉ॰ लोहिया थे और आजन्म उन्होंने ‘कर्म और विचार’ की इस संयुक्ति को अपने आचरण से जीवन्त उदाहरण भी प्रस्तत किया।
अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने वाले तमाम व्यक्तित्वों की भांति लोहिया प्रभावित भी थे। वे जेल भी गए और ऐसी यातनाएं भी सहीं। आजादी से पूर्व ही कांग्रेस के भीतर उनका सोशलिस्ट ग्रुप था, लेकिन पंद्रह अगस्त सैंतालिस को अंग्रेजों से मुक्ति पाने पर वे उल्लसित तो थे लेकिन विभाजन की कीमत पर पाई गई इस स्वतंत्रता के कारण नेहरू और नेहरू की कांग्रेस से उनका रास्ता हमेशा के लिए अलग हो गया। स्वतंत्रता के नाम पर सत्ता की लिप्सा का यह खुला खेल लोहिया ने अपनी नंगी आंखों से देखा था और इसीलिए स्वतंत्रता के बाद की कांग्रेस पार्टी और कांग्रेसियों के प्रति उनमें इतना रोष और क्षोभ था कि उन्हें धुर दक्षिणपंथी और वामपंथियों दोनों को साथ लेना भी उन्हें बेहतर विकल्प ही प्रतीत हुआ।

भारत-विभाजन पर लोहिया के विचार

उस समय की तमाम ऐसी घटनाओं और स्थितियों का जिनके प्रति एक आम भारतीय नागरिक के मन में बहुत स्पष्ट और तार्किक व्याख्या नहीं है, लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘गिल्टी मैन एंड इंडियाज पार्टीशन’ (भारत विभाजन के गुनहगार) में परद दर परत रहस्यों को खोला है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि उस समय के पूरे आंखों देखे इतिहास को ही नहीं, बल्कि उसके एक सक्रिय, जीवंत पात्र रहे लोहिया की बातों को आजाद भारत में सत्तारूढ़ दल द्वारा एक विपक्षी नेता की ‘खीझ’ से ज्यादा नहीं समझने दिया गया, जबकि सच्चाई यह है कि सत्ता हस्तांतरण के खेल की असलियत संग्रहालयों में दफन दस्तावेजों से ज्यादा लोहिया जैसे नेताओं को भी मालूम थी जिसे होते हुए उन्होंने अपनी आंखों से देखा था।

मौलिक एवं ठेठ देसी चिन्तक

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के राजनेताओं में लोहिया मौलिक विचारक थे।[1] लोहिया के मन में भारतीय गणतंत्र को लेकर ठेठ देसी सोच थी। अपने इतिहास, अपनी भाषा के सन्दर्भ में वे कतई पश्चिम से कोई सिद्धांत उधार लेकर व्याख्या करने को राजी नहीं थे। सन् 1932 में जर्मनी से पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने वाले राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में देश से अंग्रेजी हटाने का जो आह्वान किया। अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन की गणना अब तक के कुछ इने गिने आंदोलनों में की जा सकती है। उनके लिए स्वभाषा राजनीति का मुद्दा नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों–करोडों को हीन ग्रंथि से उबरकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था– ‘‘मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं।’’
हलांकि लोहिया भी जर्मनी यानी विदेश से पढा़ई कर के आए थे, लेकिन उन्हें उन प्रतीकों का अहसास था जिनसे इस देश की पहचान है। शिवरात्रि पर चित्रकूट में रामायण मेला उन्हीं की संकल्पना थी, जो सौभाग्य से अभी तक अनवरत चला आ रहा है। आज भी जब चित्रकूट के उस मेले में हजारों भूखे नंगे निर्धन भारतवासियों की भीड़ स्वयमेव जुटती है तो लगता है कि ये ही हैं जिनकी चिंता लोहिया को थी, लेकिन आज इनकी चिंता करने के लिए लोहिया के लोग कहां हैं?

राजनीतिक शुचिता के पक्षधर

लोहिया ही थे जो राजनीति की गंदी गली में भी शुद्ध आचरण की बात करते थे। वे एकमात्र ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपनी पार्टी की सरकार से खुलेआम त्यागपत्र की मांग की, क्योंकि उस सरकार के शासन में आंदोलनकारियों पर गोली चलाई गई थी। ध्यान रहे स्वाधीन भारत में किसी भी राज्य में यह पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी– ‘‘हिंदुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निंदा उसी पार्टी के लोग करें।....और मै यह याद दिला दूं कि मुझे यह कहने का हक है कि हम ही हिंदुस्तान में एक राजनीतिक पार्टी हैं जिन्होंने अपनी सरकार की भी निंदा की थी और सिर्फ निंदा ही नहीं की बल्कि एक मायने में उसको इतना तंग किया कि उसे हट जाना पडा़।

कर्मवीर

लोहिया जी केवल चिन्तक ही नहीं, एक कर्मवीर भी थे। उन्होने अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक आन्दोलनों का नेतृत्व किया। सन १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उषा मेहता के साथ मिलकर उन्होने गुप्त रेडियो स्टेशन चलाया। १८ जून १९४६ को गोआ को पुर्तगालियों के आधिपत्य से मुक्ति दिलाने के लिये उन्होने आन्दोलन आरम्भ किया। अंग्रेजी को भारत से हटाने के लिये उन्होने अंग्रेजी हटाओ आन्दोलनचलाया।

लेखन

डॉ राममनोहर लोहिया ने अनेकों विषयों पर अपने विचार लेख एवं पुस्तकों के रूप में प्रकाशित कीं। उनकी कुछ रचनाएँ हैं-
  • अंग्रेजी हटाओ
  • इतिहास चक्र
  • देश, विदेश नीति-कुछ पहलू
  • धर्म पर एक दृष्टि
  • भारतीय शिल्प
  • भारत विभाजन के गुनहगार
  • मार्क्सवाद और समाजवाद
  • राग, जिम्मेदारी की भावना, अनुपात की समझ
  • समलक्ष्य, समबोध
  • समदृष्टि
  • सच, कर्म, प्रतिकार और चरित्र निर्माण आह्‌वान
  • समाजवादी चिंतन
  • संसदीय आचरण
  • संपूर्ण और संभव बराबरी और दूसरे भाषण
  • हिंदू बनाम हिंदू
डा राममनोहर लोहिया की समाज-परिवर्तन के सात स्वप्न थे, जिसे सप्त क्रांति के नाम से भी जाना जाता है। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ जेहाद बोलने के पक्षपाती थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। वे सात क्रान्तियाँ थी-
1. नर-नारी की समानता के लिए।
2. चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के विरुद्ध।
3. संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के ख़िलाफ़ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए।
4. परदेसी ग़ुलामी के ख़िलाफ़ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए।
5. निजी पूँजी की विषमताओं के ख़िलाफ़ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए।
6. निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ और लोकतंत्री पद्धति के लिए।
7. अस्त्र-शस्त्र के ख़िलाफ़ और सत्याग्रह के लिये।
इन सात क्रांतियों के सम्बन्ध में लोहिया ने कहा -
"मोटे तौर से ये हैं सात क्रांन्तियाँ। सातों क्रांतियाँ संसार में एक साथ चल रही हैं। अपने देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करना चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ में आयी हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाये कि आज का इन्सान सब नाइन्साफियों के ख़िलाफ़ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाये कि जिसमें आन्तरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाये।"
सप्त-क्रांति का उनका सपना अभी भी अधूरा है। जाति-भेद, रंग-भेद, लिंग-भेद, वर्ग-भेद, भाषा-भेद और शस्त्र-भेद रहित समाज का निर्माण करने वाले नेता अब ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते।

Saturday 10 September 2016

तेरा भी इतिहास बनेगा


 तेरा भी इतिहास बनेगा 
         -  राघवेन्द्रसिंह कुशवाहा
          
तेरी ख़ामोशी ही 
तेरी  बदहाली का कारण है 
तेरे  हुंकार में ही 
सारी  मुसीबतों का निवारण है .

तू इंतजार मत कर 
किसी फ़रिश्ते का 
न वो आया है न आएगा
तेरी  बगावत ही 
नया इन्कलाब लाएगा .

हर कोई अपनी परेशानी की 
लड़ाई से ही महान हुआ है
सीता हरण के बाद ही 
राम ने रावण को मारा 
माता-पिता के प्रतिशोध में 
कृष्ण ने कंस का वध किया 
ट्रेन से धक्का खाकर 
गाँधी ने अंग्रेजो को भगाया.

तू भी शुरू कर अपनी लड़ाई
तेरा भी इतिहास बनेगा 
संघर्ष की बुनियाद पर 
एक नया समाज बनेगा ...

Wednesday 7 September 2016

आत्मीयता--osho




सभी आत्मीयता से डरते हैं। यह बात और है कि इसके बारे में तुम सचेत हो या नहीं। आत्मीयता का मतलब होता है कि किसी अजनबी के सामने स्वयं को पूरी तरह से उघाड़ना। हम सभी अजनबी हैं--कोई भी किसी को नहीं जानता। हम स्वयं के प्रति भी अजनबी हैं, क्योंकि हम नहीं जानते कि हम हैं कौन।

; सिर्फ तभी, आत्मीयता संभव है। और भय यह है कि यदि तुम अपने सारे सुरक्षा कवच, तुम्हारे सारे मुखौटे गिरा देते हो, तो कौन जाने कोई अजनबी तुम्हारे साथ क्या करने वाला है।

एक तरफ आत्मीयता अनिवार्य जरूरत है, इसलिए सभी यह चाहते हैं। लेकिन हर कोई चाहता है कि दूसरा व्यक्ति आत्मीय हो कि दूसरा व्यक्ति अपने बचाव गिरा दे, संवेदनशील हो जाए, अपने सारे घाव खोल दे, सारे मुखौटे और झूठा व्यक्तित्व गिरा दे, जैसा वह है वैसा नग्न खड़ा हो जाए।

यदि तुम सामान्य जीवन जीते, प्राकृतिक जीवन जीते तो आत्मीयता से कोई भय नहीं होता, बल्कि बहुत आनंद होता-दो ज्योतियां इतनी पास आती हैं कि लगभग एक बन जाए। और यह मिलन बहुत बड़ी तृप्तिदायी, संतुष्टिदायी, संपूर्ण होती है। लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता पाओ, तुम्हें अपना घर पूरी तरह से साफ करना होगा।

सिर्फ ध्यानी व्यक्ति ही आत्मीयता को घटने दे सकता है। आत्मीयता का सामान्य सा अर्थ यही होता है कि तुम्हारे लिए हृदय के सारे द्वार खुल गए, तुम्हारा भीतर स्वागत है और तुम मेहमान बन सकते हो। लेकिन यह तभी संभव है जब तुम्हारे पास हृदय हो और जो दमित कामुकता के कारण सिकुड़ नहीं गया हो, जो हर तरह के विकारों से उबल नहीं रहा हो, जो कि प्राकृतिक है, जैसे कि वृक्ष; जो इतना निर्दोष है जितना कि एक बच्चा। तब आत्मीयता का कोई भय नहीं होगा।

विश्रांत होओ और समाज ने तुम्हारे भीतर जो विभाजन पैदा कर दिया है उसे समाप्त कर दो। वही कहो जो तुम कहना चाहते हो। बिना फल की चिंता किए अपनी सहजता के द्वारा कर्म करो। यह छोटा सा जीवन है और इसे यहां और वहां के फलों की चिंता करके नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।

आत्मीयता के द्वारा, प्रेम के द्वारा, दूसरें लोगों के प्रति खुल कर, तुम समृद्ध होते हो। और यदि तुम बहुत सारे लोगों के साथ गहन प्रेम में, गहन मित्रता में, गहन आत्मीयता में जी सको तो तुमने जीवन सही ढंग से जीया, और जहां कहीं तुम हो...तुमने कला सीख ली; तुम वहां भी प्रसन्नतापूर्वक जीओगे।

लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता के प्रति भयरहित होओ, तुम्हें सारे कचरे से मुक्त होना होगा जो धर्म तुम्हारे ऊपर डालते रहे हैं, सारा कबाड़ जो सदियों से तुम्हें दिया जाता रहा है। इस सब से मुक्त होओ, और शांति, मौन, आनंद, गीत और नृत्य का जीवन जीओ। और तुम रूपांतरित होओगे...जहां कहीं तुम हो, वह स्थान स्वर्ग हो जाएगा।

अपने प्रेम को उत्सवपूर्ण बनाओ, इसे भागते दौडते किया हुआ कृत्य मत बनाओ। नाचो, गाओ, संगीत बजाओ-और सेक्स को मानसिक मत होने दो। मानसिक सेक्स प्रामाणिक नहीं होता है; सेक्स सहज होना चाहिए।

माहौल बनाओ। तुम्हारा सोने का कमरा ऐसा होना चाहिए जैसे कि मंदिर हो। अपने सोने के कमरे में और कुछ मत करो; गाओ और नाचो और खेलो, और यदि स्वतः प्रेम होता है, सहज घटना की तरह, तो तुम अत्यधिक आश्चर्यचकित होओगे कि जीवन ने तुम्हें ध्यान की झलक दे दी।

पुरुष और स्त्री के बीच रिश्ते में बहुत बड़ी क्रांति आने वाली है। पूरी दुनिया में विकसित देशों में ऐसे संस्थान हैं जो सिखाते हैं कि प्रेम कैसे करना। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जानवर भी जानते हैं कि प्रेम कैसे करना, और आदमी को सीखना पड़ता है। और उनके सिखाने में बुनियादी बात है संभोग के पहले की क्रीडा और उसके बाद की क्रीडा, फोरप्ले और ऑफ्टरप्ले। तब प्रेम पावन अनुभव हो जाता है।

इसमें क्या बुरा है यदि आदमी उत्तेजित हो जाए और कमरे से बाहर नंगा निकाल आए? दरवाजे को बंद रखो! सारे पड़ोसियों को जान लेने दो कि यह आदमी पागल है। लेकिन तुम्हें अपने चरमोत्कर्ष के अनुभव की संभावना को नियंत्रित नहीं करना है। चरमोत्कर्ष का अनुभव मिलने और मिटने का अनुभव है, अहंकारविहीनता, मनविहीनता, समयविहीनता का अनुभव है।

इसी कारण लोग कंपते हुए जीते हैं। भला वो छिपाएं; वे इसे ढंक लें, वे किसी को नहीं बताएं, लेकिन वे भय में जीते हैं। यही कारण है कि लोग किसी के साथ आत्मीय होने से डरते हैं। भय यह है कि हो सकता है कि यदि तुमने किसी को बहुत करीब आने दिया तो दूसरा तुम्हारे भीतर के काले धब्बे देख ना ले ।

इंटीमेसी (आत्मीयता) शब्द लातीन मूल के इंटीमम से आया है। इंटीमम का अर्थ होता है तुम्हारी अंतरंगता, तुम्हारा अंतरतम केंद्र। जब तक कि वहां कुछ न हो, तुम किसी के साथ आत्मीय नहीं हो सकते। तुम किसी को आत्मीय नहीं होने देते क्योंकि वह सब-कुछ देख लेगा, घाव और बाहर बहता हुआ पस। वह यह जान लेगा कि तुम यह नहीं जानते कि तुम हो कौन, कि तुम पागल आदमी हा; कि तुम नहीं जानते कि तुम कहां जा रहे हो कि तुमने अपना स्वयं का गीत ही नहीं सुना कि तुम्हारा जीवन अव्यवस्थित है, यह आनंद नहीं है। इसी कारण आत्मीयता का भय है। प्रेमी भी शायद ही कभी आत्मीय होते हैं। और सिर्फ सेक्स के तल पर किसी से मिलना आत्मीयता नहीं है। ऐंद्रिय चरमोत्कर्ष आत्मीयता नहीं है। यह तो इसकी सिर्फ परिधि है; आत्मीयता इसके साथ भी हो सकती है और इसके बगैर भी हो सकती है।

ओशो: दि हिडन स्पलेंडर

आत्मीयता--osho


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सभी आत्मीयता से डरते हैं। यह बात और है कि इसके बारे में तुम सचेत हो या नहीं। आत्मीयता का मतलब होता है कि किसी अजनबी के सामने स्वयं को पूरी तरह से उघाड़ना। हम सभी अजनबी हैं--कोई भी किसी को नहीं जानता। हम स्वयं के प्रति भी अजनबी हैं, क्योंकि हम नहीं जानते कि हम हैं कौन।

; सिर्फ तभी, आत्मीयता संभव है। और भय यह है कि यदि तुम अपने सारे सुरक्षा कवच, तुम्हारे सारे मुखौटे गिरा देते हो, तो कौन जाने कोई अजनबी तुम्हारे साथ क्या करने वाला है।

एक तरफ आत्मीयता अनिवार्य जरूरत है, इसलिए सभी यह चाहते हैं। लेकिन हर कोई चाहता है कि दूसरा व्यक्ति आत्मीय हो कि दूसरा व्यक्ति अपने बचाव गिरा दे, संवेदनशील हो जाए, अपने सारे घाव खोल दे, सारे मुखौटे और झूठा व्यक्तित्व गिरा दे, जैसा वह है वैसा नग्न खड़ा हो जाए।

यदि तुम सामान्य जीवन जीते, प्राकृतिक जीवन जीते तो आत्मीयता से कोई भय नहीं होता, बल्कि बहुत आनंद होता-दो ज्योतियां इतनी पास आती हैं कि लगभग एक बन जाए। और यह मिलन बहुत बड़ी तृप्तिदायी, संतुष्टिदायी, संपूर्ण होती है। लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता पाओ, तुम्हें अपना घर पूरी तरह से साफ करना होगा।

सिर्फ ध्यानी व्यक्ति ही आत्मीयता को घटने दे सकता है। आत्मीयता का सामान्य सा अर्थ यही होता है कि तुम्हारे लिए हृदय के सारे द्वार खुल गए, तुम्हारा भीतर स्वागत है और तुम मेहमान बन सकते हो। लेकिन यह तभी संभव है जब तुम्हारे पास हृदय हो और जो दमित कामुकता के कारण सिकुड़ नहीं गया हो, जो हर तरह के विकारों से उबल नहीं रहा हो, जो कि प्राकृतिक है, जैसे कि वृक्ष; जो इतना निर्दोष है जितना कि एक बच्चा। तब आत्मीयता का कोई भय नहीं होगा।

विश्रांत होओ और समाज ने तुम्हारे भीतर जो विभाजन पैदा कर दिया है उसे समाप्त कर दो। वही कहो जो तुम कहना चाहते हो। बिना फल की चिंता किए अपनी सहजता के द्वारा कर्म करो। यह छोटा सा जीवन है और इसे यहां और वहां के फलों की चिंता करके नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।

आत्मीयता के द्वारा, प्रेम के द्वारा, दूसरें लोगों के प्रति खुल कर, तुम समृद्ध होते हो। और यदि तुम बहुत सारे लोगों के साथ गहन प्रेम में, गहन मित्रता में, गहन आत्मीयता में जी सको तो तुमने जीवन सही ढंग से जीया, और जहां कहीं तुम हो...तुमने कला सीख ली; तुम वहां भी प्रसन्नतापूर्वक जीओगे।

लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता के प्रति भयरहित होओ, तुम्हें सारे कचरे से मुक्त होना होगा जो धर्म तुम्हारे ऊपर डालते रहे हैं, सारा कबाड़ जो सदियों से तुम्हें दिया जाता रहा है। इस सब से मुक्त होओ, और शांति, मौन, आनंद, गीत और नृत्य का जीवन जीओ। और तुम रूपांतरित होओगे...जहां कहीं तुम हो, वह स्थान स्वर्ग हो जाएगा।

अपने प्रेम को उत्सवपूर्ण बनाओ, इसे भागते दौडते किया हुआ कृत्य मत बनाओ। नाचो, गाओ, संगीत बजाओ-और सेक्स को मानसिक मत होने दो। मानसिक सेक्स प्रामाणिक नहीं होता है; सेक्स सहज होना चाहिए।

माहौल बनाओ। तुम्हारा सोने का कमरा ऐसा होना चाहिए जैसे कि मंदिर हो। अपने सोने के कमरे में और कुछ मत करो; गाओ और नाचो और खेलो, और यदि स्वतः प्रेम होता है, सहज घटना की तरह, तो तुम अत्यधिक आश्चर्यचकित होओगे कि जीवन ने तुम्हें ध्यान की झलक दे दी।

पुरुष और स्त्री के बीच रिश्ते में बहुत बड़ी क्रांति आने वाली है। पूरी दुनिया में विकसित देशों में ऐसे संस्थान हैं जो सिखाते हैं कि प्रेम कैसे करना। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जानवर भी जानते हैं कि प्रेम कैसे करना, और आदमी को सीखना पड़ता है। और उनके सिखाने में बुनियादी बात है संभोग के पहले की क्रीडा और उसके बाद की क्रीडा, फोरप्ले और ऑफ्टरप्ले। तब प्रेम पावन अनुभव हो जाता है।

इसमें क्या बुरा है यदि आदमी उत्तेजित हो जाए और कमरे से बाहर नंगा निकाल आए? दरवाजे को बंद रखो! सारे पड़ोसियों को जान लेने दो कि यह आदमी पागल है। लेकिन तुम्हें अपने चरमोत्कर्ष के अनुभव की संभावना को नियंत्रित नहीं करना है। चरमोत्कर्ष का अनुभव मिलने और मिटने का अनुभव है, अहंकारविहीनता, मनविहीनता, समयविहीनता का अनुभव है।

इसी कारण लोग कंपते हुए जीते हैं। भला वो छिपाएं; वे इसे ढंक लें, वे किसी को नहीं बताएं, लेकिन वे भय में जीते हैं। यही कारण है कि लोग किसी के साथ आत्मीय होने से डरते हैं। भय यह है कि हो सकता है कि यदि तुमने किसी को बहुत करीब आने दिया तो दूसरा तुम्हारे भीतर के काले धब्बे देख ना ले ।

इंटीमेसी (आत्मीयता) शब्द लातीन मूल के इंटीमम से आया है। इंटीमम का अर्थ होता है तुम्हारी अंतरंगता, तुम्हारा अंतरतम केंद्र। जब तक कि वहां कुछ न हो, तुम किसी के साथ आत्मीय नहीं हो सकते। तुम किसी को आत्मीय नहीं होने देते क्योंकि वह सब-कुछ देख लेगा, घाव और बाहर बहता हुआ पस। वह यह जान लेगा कि तुम यह नहीं जानते कि तुम हो कौन, कि तुम पागल आदमी हा; कि तुम नहीं जानते कि तुम कहां जा रहे हो कि तुमने अपना स्वयं का गीत ही नहीं सुना कि तुम्हारा जीवन अव्यवस्थित है, यह आनंद नहीं है। इसी कारण आत्मीयता का भय है। प्रेमी भी शायद ही कभी आत्मीय होते हैं। और सिर्फ सेक्स के तल पर किसी से मिलना आत्मीयता नहीं है। ऐंद्रिय चरमोत्कर्ष आत्मीयता नहीं है। यह तो इसकी सिर्फ परिधि है; आत्मीयता इसके साथ भी हो सकती है और इसके बगैर भी हो सकती है।

ओशो: दि हिडन स्पलेंडर

तुम्हें कैसे पता चलता है कि कोई सचमुच तुम्हें प्रेम करता है?--osho

रेम कहते हैं। सैक्स जैविक है, शारीरिक है। तुम्हारी केमिस्ट्री, तुम्हारे हार्मोन, सभी भौतिक तत्व उसमें संलग्न हैं।  तुम एक स्त्री या एक पुरुष के प्रेम में पड़ते हो, क्या तुम सही-सही बता सकते हो कि इस स्त्री ने तुम्हें क्यों आकर्षित किया? निश्चय ही तुम उसकी आत्मा नहीं देख सकते, तुमने अभी तक अपनी आत्मा को ही नहीं देखा है। तुम उसका मनोविज्ञान भी नहीं देख सकते क्योंकि किसी का मन पढ़ना आसान काम नहीं है। तो तुमने इस स्त्री में क्या देखा? तुम्हारे शरीर विज्ञान में, तुम्हारे हार्मोन में कुछ ऐसा है जो इस स्त्री के शरीर विज्ञान की ओर, उसके हार्मोन की ओर, उसकी केमिस्ट्री की ओर आकर्षित हुआ है। यह प्रेम प्रसंग नहीं है, यह रासायनिक प्रसंग है।जरा सोचो, जिस स्त्री के प्रेम में तुम हो वह यदि डाक्टर के पास जाकर अपना सैक्स बदलवा ले  और मूछें और दाढ़ी ऊगाने लगे तो क्या तब भी तुम इससे प्रेम करोगे? कुछ भी नहीं बदला, सिर्फ केमिस्ट्री, सिर्फ हार्मोन। फिर तुम्हारा प्रेम कहां गया?

सिर्फ एक प्रतिशत लोग थोड़ी गहरी समझ रखते हैं। कवि, चित्रकार, संगीतकार, नर्तक या गायक के पास एक संवेदनशीलता होती है जो शरीर के पार देख सकती है। वे मन की, हृदय की सुंदरताओं को महसूस कर सकते हैं क्योंकि वे खुद उस तल पर जीते हैं।

इसे एक बुनियादी नियम की तरह याद रखो: तुम जहां भी रहते हो उसके पार नहीं देख सकते। यदि तुम अपने शरीर में जीते हो, स्वयं को सिर्फ शरीर मानते हो तो तुम सिर्फ किसी के शरीर की ओर आकर्षित होओगे। यह प्रेम का शारीरिक तल है। लेकिन संगीतज्ञ , चित्रकार, कवि एक अलग तल पर जीता है। वह सोचता नहीं, वह महसूस करता है। और चूंकि वह हृदय में जीता है वह दूसरे व्यक्ति का हृदय महसूस कर सकता है। सामान्यतया इसे ही प्रेम कहते हैं। यह विरल है। मैं कह रहा हूं शायद केवल एक प्रतिशत, कभी-कभार।

दूसरे तल पर बहुत लोग क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं जबकि वह अत्यंत सुंदर है? लेकिन एक समस्या है: जो बहुत सुंदर है वह बहुत नाजुक भी है। वह हार्डवेयर नहीं है, वह अति नाजुक शीशे से बना है। और एक बार शीशा गिरा और टूटा तो इसे वापिस जोड़ने का कोई उपाय नहीं होता। लोग इतने गहरे जुड़ना नहीं चाहते कि वे प्रेम की नाजुक पर्तों तक पहुंचें, क्योंकि उस तल पर प्रेम अपरिसीम सुंदर होता है लेकिन उतना ही तेजी से बदलता भी है।

भावनाएं पत्थर नहीं होतीं, वे गुलाब के फूलों की भांति होती हैं। इससे तो प्लास्टिक का फूल लाना बेहतर है क्योंकि वह हमेशा रहेगा, और रोज तुम उसे नहला सकते हो और वह ताजा रहेगा। तुम उस पर जरा सी फ्रेंच सुगंध छिड़क सकते हो। यदि उसका रंग उड़ जाए तो तुम उसे पुन: रंग सकते हो। प्लास्टिक दुनिया की सबसे अविनाशी चीजों में एक है। वह स्थिर है, स्थायी है; इसीलिए लोग शारीरिक तल पर रुक जाते हैं। वह सतही है लेकिन स्थिर है।

कवि, कलाकार लगभग हर दिन प्रेम में पड़ते रहते हैं। उनका प्रेम गुलाब के फूल की तरह होता है। जब तक होता है तब तक इतना सुगंधित होता है, इतना जीवंत, हवाओं में, बारिश में सूरज की रोशनी में नाचता हुआ, अपने सौंदर्य की घोषणा करता हुआ, लेकिन शाम होते-होते वह मुरझा जाएगा, और उसे रोकने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते। हृदय का गहरा प्रेम हवा की तरह होता है जो तुम्हारे कमरे में आती है; वह अपनी ताज़गी, अपनी शीतलता लाती है, और बाद में विदा हो जाती है। तुम उसे अपनी मुट्ठी में बांध नहीं सकते।

बहुत कम लोग इतने साहसिक होते हैं कि क्षण-क्षण जीएं, जीवन को बदलते रहें। इसलिए उन्होंने ऐसा प्रेम करने का सोचा है जिस पर वे निर्भर रह सकते हैं। मैं नहीं जानता तुम किस प्रकार का प्रेम जानते हो, शायद पहले किस्म का, शायद दूसरे किस्म का। और तुम भयभीत हो कि अगर तुम अपने अंतरतम में पहुंचो तो तुम्हारे प्रेम का क्या होगा? निश्चय ही वह खो जाएगा लेकिन तुम कुछ नहीं खोओगे। एक नए किस्म का प्रेम उभरेगा जो कि लाखों में एकाध व्यक्ति के भीतर उभरता है। उस प्रेम को केवल प्रेमपूर्णता कहा जा सकता है।

पहले प्रकार के प्रेम को सैक्स कहना चाहिए। दूसरे प्रेम को प्रेम कहना चाहिए, तीसरे प्रेम को प्रेमपूर्णता कहना चाहिए: एक गुणावत्ता, असंबोधित; न खुद अधिकार जताता है, न किसी को जताने देता है। यह प्रेमपूर्ण गुणवत्ता ऐसी मूलभूत क्रांति है कि उसकी कल्पना करना भी अति कठिन है।पत्रकार मुझसे पूछते रहते हैं, " यहां पर इतनी स्त्रियां क्यों हैं?" स्वभावत: प्रश्न संगत है, और जब मैं जवाब देता हूं तो उन्हें धक्का लगता है। उन्हें यह उत्तर अपेक्षित नहीं था। मैंने उनसे कहा, " मैं पुरुष हूं।" उन्होंने अविश्वसनीय रूप से मुझे देखा। मैंने कहा, " यह स्वाभाविक है कि स्त्रियां बहुत बड़ी संख्या में होंगी, क्योंकि उन्होंने अपनी जिंदगी में जो भी जाना है वह है या तो सैक्स या बहुत विरले क्षणों में प्रेम। लेकिन उन्हें कभी प्रेमपूर्णता का स्वाद नहीं मिला।" मैंने उन पत्रकारों से कहा, "तुम यहां पर जो पुरुष देखते हो उनमें भी बहुत से गुण विकसित हुए हैं जो बाहर के समाज में दबे रह गए होंगे।"


बचपन से ही लड़के से कहा जाता है, " तुम लड़के हो, लड़की नहीं हो। एक लड़के की तरह बरताव करो। आंसू लड़कियों के लिए होते हैं, तुम्हारे लिए नहीं। मर्द बनो।" अत: हर लड़का उसके स्त्रैण गुणों को खारिज करता रहता है। और जो भी सुंदर है वह सब स्त्रैण है। तो अंतत: जो शेष रहता है वह सिर्फ एक बर्बर पशु। उसका पूरा काम ही है बच्चों को पैदा करना। लड़की के भीतर कोई पुरुष के गुण पालने की इजाजत नहीं होती। अगर वह पेड़ पर चढ़ना चाहे तो उसे फौरन रोक देंगे, "यह लड़कों के लिए है, लड़की के लिए नहीं।" कमाल है! यदि लड़की पेड़ पर चढ़ना चाहती है तो यह पर्याप्त प्रमाण है कि उसे चढ़ने देना चाहिए।"सभी पुराने समाजों ने स्त्री और पुरुष केलिए भिन्न-भिन्न कपड़े बनाए हैं। यह सही नहीं है, क्योंकि हर पुरुष एक स्त्री भी है। वह दो स्रोतों से आया है: उसके पिता और उसकी मां। दोनों ने उसके अंतस को बनने में योगदान दिया है। और हर स्त्री पुरुष भी होती है। हमने दोनों को नष्ट कर दिया। स्त्री ने समूचा साहस, हिम्मत, तर्क, युक्ति खो दी क्योंकि इन्हें पौरुष की गुणवत्ताएं माना जाता है। और पुरुष ने प्रसाद, संवेदनशीलता, करुणा, दयालुता खो दी। दोनों आधे हो गए। यह एक बड़ी समस्याओं में एक है जिसे हमें हल करना है, कम से कम हमारे लोगों के लिए।

 मेरे संन्यासियों को दोनों होना है: आधा पुरुष, आधी स्त्री। यह उन्हें समृद्ध बनाएगा। उनके पास वे सभी गुण्वत्ताएं होंगी जो मनुष्य के लिए संभव हैं, केवल आधी ही नहीं।अंतरतम के बिंदु पर तुम्हारे भीतर सिर्फ प्रेमपूर्णता की एक सुवास होती है। तो डरो मत। तुम्हारा भय सही है, जिसे तुम प्रेम कहते हो वह विदा हो जाएगा लेकिन उसकी जगह जो आएगा वह अपरिसीम है, अनंत है । तुम बिना लगाव के प्रेम करने में सफल होओगे। तुम अनेक लोगों से प्रेम कर सकोगे क्योंकि एक व्यक्ति से प्रेम करना खुद को गरीब रखना है। वह एक व्यक्ति तुम्हें एक अनुभव दे सकता है लेकिन कई-कई लोगों से प्रेम करना …

तुम चकित होओगे कि हर व्यक्ति तुम्हें एक नया अहसास, नया गीत, नई मस्ती देता है। इसीलिए मैं विवाह के खिलाफ हूं। कम्यून में विवाह खारिज कर देने चाहिए। लोग चाहें तो तह-ए-जिंदगी एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं लेकिन यह एक कानूनी आवश्यकता नहीं होगी। लोगों को कई संबंध बनाने चाहिए, प्रेम के जितने अनुभव संभव हैं उतने लेने चाहिए। उन्हें मालकियत नहीं जमाना चाहिए। और किसी को अपने ऊपर मालकियत नहीं करने देना चाहिए क्योंकि वह भी प्रेम को नष्ट करता है।

सभी मनुष्य प्रेम करने के पात्र हैं। एक ही व्यक्ति के साथ आजीवन बंधकर रहने की जरूरत नहीं है। यह एक कारण है कि दुनिया में लोग इतने ऊबे हुए क्यों लगते हैं। वे तुम जैसे हंस क्यों नहीं सकते? वे तुम्हारी तरह नाच क्यों नहीं सकते? वे अदृश्य जंजीरों से बंधे हैं: विवाह, परिवार, पति, पत्नी, बच्चे। वे हर तरह के कर्तव्यों, जिम्मेदारियों और त्याग के बोझ तले दबे हैं, और तुम चाहते हो कि वे हंसें, मुस्कुराएं, और आनंद मनाएं? तुम असंभव की मांग कर रहे हो। लोगों के प्रेम को स्वतंत्र करो, लोगों को मालकियत से मुक्त करो। लेकिन यह तभी होता है जब तुम ध्यान में अपने अंतरतम को खोजते हो। इस प्रेम का अभ्यास नहीं किया जा सकता।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आज रात किसी अलग स्त्री के पास जाओ अभ्यास की खातिर। तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा और तुम अपनी पत्नी को भी खो दोगे। और सुबह तुम बेवकूफ दिखाई दोगे। यह अभ्यास का सवाल नहीं है, यह तुम्हारे अंतरतम को खोजने का सवाल है। अंतरतम की खोज के साथ अवैयक्तिक प्रेमपूर्णता, इम्पर्सनल लविंगनैस पैदा होती है। फिर तुम सिर्फ प्रेम होते हो। और वह फैलता जाता है। पहले मनुष्यों पर, फिर जल्दी ही पशु, पक्षी, पेड़ पर्वत, तारे…। वह दिन भी आता है जब यह पूरा अस्तित्व तुम्हारी महबूबा बनता है। और जो इसको उपलब्ध नहीं होता वह मात्र जीवन व्यर्थ गंवा रहा है।

हां, तुम्हें कुछ चीजें खोनी होंगी, लेकिन वे निरर्थक हैं। तुम्हें इतना कुछ मिलेगा कि तुम्हें दोबारा याद भी न आएगी कि तुमने क्या खोया है। एक विशुद्ध अवैयक्तिक प्रेमपूर्णता रहेगी जो किसी के भी अंतरतम में प्रविष्ट हो सकती है। यह निष्पत्ति है ध्यानपूर्ण स्थिति की, मौन की, अपने अंतस में गहरे डूबने की। मैं केवल तुम्हें राजी करने की कोशिश कर रहा हूं। जो है उसे खोने से डरो मत।

ओशो, फ्रॉम डैथ टु डैथलैसनेस, प्र # 17

क्षमा-osho

पने से कि क्षमा का क्या अर्थ है? तो साफ है अर्थ कि अगर किसी पर क्रोध आ जाए तो उसे क्षमा कर देना।

लेकिन कृष्ण की भाषा में क्षमा का यह अर्थ नहीं होता। कृष्ण की भाषा में क्षमा का अर्थ होता है, क्रोध का न आना। हमारी भाषा में अर्थ होता है, क्रोध का आना और क्षमा करना। कृष्ण की भाषा में अर्थ होता है, क्रोध का न आना, क्रोध का अभाव। हमारा अर्थ है, क्रोध को लीपना-पोतना।

मुझे आप पर क्रोध आ गया। पीछे पछतावा आता है; फिर मैं क्षमा मांग लेता हूं। तो क्रोध से जो भूल हुई थी, उसे मैं पोंछ देता हूं। एक लकीर गलत पड़ गई थी, उसे काट देता हूं। लेकिन क्रोध हो गया। और यह जो क्षमा है, यह केवल क्रोध को पोंछने का उपाय करती है; नकारात्मक है, निगेटिव है। इस क्षमा का बहुत उपयोग नहीं है। यह तो हम करते रहते हैं। चलता रहता है। अगर इसी क्षमा में अनुभव होता हो परमात्मा का, तो हम सबको हो गया होता।

कृष्ण का क्षमा से अर्थ है, जहां क्रोध पैदा नहीं होता। जहां क्रोध जन्मता नहीं, जहां क्रोध की घड़ी मौजूद होती है और भीतर क्रोध का कोई रिएक्शन, कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं होती, कोई प्रतिकर्म पैदा नहीं होता।

बुद्ध एक गांव से गुजरते हैं, कुछ लोग गालियां देते हैं। और बुद्ध उनसे कहते हैं कि अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो, तो मैं जाऊं! उनमें से एक आदमी पूछता है, आप पागल तो नहीं हैं! क्योंकि हमने बातें नहीं की हैं, गालियां दी हैं। बुद्ध कहते हैं, अगर पूरी न हुई हो बातचीत, तो जब मैं लौटूंगा, तब थोड़ा ज्यादा समय लेकर यहां रुक जाऊंगा। लेकिन अभी मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है।

निश्चित ही, वे दो तरह की भाषाएं बोल रहे हैं। उस गांव के लोग गालियां समझ सकते हैं; गालियों के उत्तर में गालियां दी जाएं, यह भी समझ सकते हैं। गालियां क्षमा कर दी जाएं; बुद्ध कह दें कि जाओ मैंने माफ किया तुम्हें, यह भी समझ सकते हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैं, तुम्हारी बात अगर पूरी हो गई हो, तो मैं जाऊं! न क्रोध है, न क्षमा है। गालियां जैसे दी ही नहीं गईं। और अगर दी भी गई हैं, तो कम से कम ली तो गई ही नहीं हैं।

एक आदमी पूछता है, लेकिन हम ऐसे न जाने देंगे। हम जानना चाहते हैं कि पागल आप हैं कि पागल हम हैं? हम गालियां दे रहे हैं, इनका उत्तर चाहिए! बुद्ध ने कहा, अगर तुम्हें इनका उत्तर चाहिए था, तो तुम्हें दस वर्ष पहले आना था। तब मैं तुम्हें उत्तर दे सकता था। लेकिन जो उत्तर दे सकता था, वह तो समय हुआ, मर गया। तुम गालियां देते हो, यह तुम्हारा काम है, लेकिन मैंने तो बहुत समय हुआ जब से गालियां लेना ही बंद कर दीं। देने की जिम्मेवारी तुम्हारी है, लेकिन अगर मैं न लूं, तो तुम क्या करोगे? कम से कम इतनी स्वतंत्रता तो मेरी है कि मैं न लूं। और अब मैं व्यर्थ चीजें नहीं लेता। तो मैं जाऊं, अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो!

पर लोगों को बड़ी मुश्किल है। बुद्ध गालियां दे दें, तो भी लोग घर शांति से लौट जाएं। बुद्ध क्षमा कर दें और कहें कि नासमझ हो तुम, तुम्हें कुछ पता नहीं, तो भी लोग घर शांति से लौट जाएं। लेकिन अब इन लोगों की नींद हराम हो जाएगी, क्योंकि यह बुद्ध इनको अधर में लटका हुआ छोड़ गए। इन्होंने गाली दी थी; नदी के एक तरफ से सेतु बनाया था; दूसरा किनारा ही न मिला! इन्होंने तीर छोड़ा था, निशाना ठीक जगह लगे; हर्ज नहीं, गलत जगह लगे; लगे तो। निशाना लगा ही नहीं। और तीर चलता ही चला जाए और निशाना लगे ही नहीं, तो जैसी मजबूरी में, जैसी तकलीफ में तीर पड़ जाए, वैसी तकलीफ में ये पड़ जाएंगे। तो बुद्ध उन्हें तकलीफ में देखकर कहते हैं कि तुम बड़ी तकलीफ में पड़ गए मालूम पड़ते हो। तुम्हारी सूझ-बूझ खो गई, तो मैं तुम्हें एक सुझाव देता हूं। पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयों का थाल लेकर मुझे देने आए थे, लेकिन मेरा पेट था भरा और मैंने उनसे कहा कि तुम इन्हें वापस ले जाओ। तो वे अपनी मिठाइयों का थाल वापस ले गए। मैं तुमसे पूछता हूं, उन्होंने क्या किया होगा? तो एक आदमी ने भीड़ में से कहा, क्या किया होगा! गांव में जाकर मिठाई बांट दी होगी। तो बुद्ध ने कहा, अब तुम क्या करोगे? तुम गालियों का थाल भरकर लाए, और मैं लेता नहीं हूं। तुम जाकर गांव में इन्हें बांट लेना, ताकि तुम रात शांति से सो सको!

क्षमा का अर्थ है, वैसी चित्त की दशा, जहां क्रोध व्यर्थ हो जाता है। क्षमा का अर्थ है, चित्त की वैसी भाव-दशा, जहां क्रोध जन्मता ही नहीं।

यह बहुत मजे की बात है कि क्रोध हमें इसलिए जन्मता है-- इसलिए नहीं कि लोग क्रोध जन्मा देते हैं--क्रोध हमें इसलिए जन्मता है कि क्रोध हमारे भीतर सदा है। जब कोई आपको गाली देता है, तो आप इस भ्रांति में मत पड़ना कि उसने आपमें क्रोध पैदा करवा दिया। क्रोध तो आपके भीतर मौजूद था। उसकी गाली तो केवल उसे बाहर लाने का काम करती है।

जैसे कोई एक बाल्टी को रस्सी में बांधकर कुएं में डाल दे और खींचे और पानी भरकर बाहर आ जाए, तो क्या आप यह कहेंगे कि इस आदमी ने कुएं में पानी भर दिया? यह सिर्फ बाल्टी डालता है, कुएं में जो पानी भरा ही था, वह बाहर निकल आता है। अगर यह आदमी खाली कुएं में, सूखे कुएं में बाल्टी डाले, तो बाल्टी भड़भड़ाएगी, परेशान होगी; खाली वापस लौट आएगी।

बुद्ध में जब कोई गाली डालता है, तो खाली, सूखे कुएं में बाल्टी डाल रहा है। बाल्टी वापस लौट आएगी। मेहनत व्यर्थ जाएगी। हमारे भीतर जब कोई बाल्टी डालता है, गाली डालता है, तो भरी हुई लौटती है, लबालब लौटती है; ऊपर से बहती हुई लौटती है। और हम सोचते हैं, इस आदमी ने गाली दी, इसलिए मुझमें क्रोध पैदा हुआ! नहीं। क्रोध आपके भीतर था, इस आदमी ने कृपा की, गाली दी और आपको आपके क्रोध के दर्शन करवाए। इसने आपके क्रोध को आपके समक्ष प्रकट किया।

क्रोध किसी की गाली से पैदा नहीं होता, नहीं तो बुद्ध में भी पैदा होगा। क्रोध तो है ही, मौके उसे प्रकट करने में सहयोगी हो जाते हैं। और अगर मौके न मिलें और क्रोध भीतर हो, तो हम मौके खोज लेते हैं।

आप सबको पता होगा, अगर दो-चार-आठ दिन क्रोध करने का कोई मौका न दे, तो जैसी बेचैनी होती है, वैसी बेचैनी क्रोध करने से भी नहीं होती। मनसविद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आदमी को क्रोध करने का मौका न मिले, तो वह मौका खोज लेता है। वह ऐसी बात में से मौका निकाल लेता है, जहां कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि यहां क्रोध की कोई जरूरत है। वह चारों तरफ तलाश में रहता है। वह चारों तरफ अपने आस-पास अज्ञात फीलर्स छोड़ देता है; खोजते रहते हैं कि कहीं जरा मौका मिल जाए और वह क्रोध से भर जाए।

अगर इस आदमी को बंद कर दें तीन महीने एकांत में, तो यह दीवालों से लड़ेगा। यह दीवालों से सिर फोड़ेगा। यह खाली आकाश में गालियां देगा। यह अपने को भी चोट पहुंचा सकता है; अपने को भी मार सकता है। क्रोध अपने पर भी प्रकट कर सकता है।
क्रोध आपकी एक अवस्था है। ध्यान रखें, अगर क्रोध सिर्फ एक प्रतिक्रिया है किसी के द्वारा पैदा की गई, तब तो क्षमा असंभव है। क्रोध आपकी एक अवस्था है; और अगर आप अपने को बदल लें, तो क्षमा भी आपकी अवस्था हो सकती है। और तब कोई आपके भीतर बाल्टी डाले, तो क्षमा भरकर बाहर निकले।

जीसस को सूली पर लटकाया है। और जीसस से कहा गया है कि अगर तुम्हें कोई अंतिम प्रार्थना करनी हो, तो मृत्यु के पहले कर लो। तो वे प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मा! इन सबको क्षमा कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।

गाली नहीं, सूली डाली गई है भीतर! और यह आदमी कहता है, इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं, ये क्या कर रहे हैं! भीतर क्षमा हो, तो क्षमा निकलेगी। भीतर क्रोध हो, तो क्रोध निकलेगा।

इस बात को एक मौलिक सूत्र की तरह अपने हृदय में लिखकर रख छोड़ें कि जो आपके भीतर है, वही निकलेगा। इसलिए जब भी कुछ आपके बाहर निकले, तो दूसरे को दोषी मत ठहराना। वह आपकी ही संपदा है, जिसको आप अपने भीतर छिपाए थे।

इसलिए कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छबाय। अपनी निंदा करने वाले को आंगन और कुटी छवाकर अपने पास ही रख लेना चाहिए, ताकि भीतर जो भी कचरा है, वह उसका दर्शन करवाता रहे। वह बार-बार ऐसी बातें कहता रहे कि भीतर जो भी है, वह दिखाई पड़ता रहे। ताकि किसी दिन उससे छुटकारा भी हो जाए।

लेकिन हम प्रशंसकों को पास रखना पसंद करते हैं। क्योंकि जो हमारे भीतर नहीं है, वह वे बताते रहते हैं। जो हमारे भीतर नहीं है वह! और जो हमारे भीतर है, उसे छिपाते रहते हैं। हम मित्र उनको कहते हैं--नासमझी हमारी हद्द की है--हम मित्र उनको कहते हैं, जो हमारे भीतर नहीं है, उसका हमें दर्शन कराते रहते हैं। और हम शत्रु उनको कहते हैं--नासमझी हमारी हद्द की है--कि जो हमारे भीतर है, उसका दर्शन कराएं, तो हम उन्हें शत्रु मान लेते हैं!

अगर कोई गाली दे और भीतर क्रोध आए, तो उसे धन्यवाद देना कि उसने एक अवसर दिया, एक मौका जुटाया, एक परिस्थिति बनाई, जिसमें आपका क्रोध आपको दिखाई पड़ा। और अगर कोई व्यक्ति गाली देने वाले को भी धन्यवाद दे पाए, तो एक दिन उसके भीतर क्षमा की शक्ति पैदा होगी। वह क्षमा पाजिटिव है। वह क्षमा किसी किए गए क्रोध का पछतावा नहीं है; किसी क्रोध के लिए मांगी गई माफी नहीं है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप क्रोध करना, तो माफी मत मांगना। यह मैं नहीं कह रहा हूं। लेकिन उस माफी को कृष्ण की क्षमा मत समझना। वह हमारे बाजार की क्षमा है।
हमारी दुनिया की क्षमा है। वह कारगर है, लुब्रिकेटिंग है, उसका बड़ा उपयोग है।
आप मुझे गाली दे गए, फिर अगर आप मुझसे क्षमा न मांगें, तो मेरे और आपके बीच चका बिलकुल जाम हो जाएगा, लुब्रिकेशन मुश्किल हो जाएगा। थोड़ा तेल चाहिए; चके चलते रहते हैं। और जिंदगी बड़े चकों का जाल है। चके में चके उलझे हुए हैं। यहां अगर बिलकुल क्षमा वगैरह मत करिए, तो आप जाम हो जाएंगे, अटक जाएंगे; हिलना मुश्किल हो जाएगा। मांग ली क्षमा; थोड़ा तेल पड़ गया चके में; चके फिर चलने लगे। बस हमारी क्षमा का तो इतना ही उपयोग है। लेकिन उपयोग है, और जिंदगी चलती है इस लुब्रिकेशन से। लेकिन कृष्ण की क्षमा कोई और बात है। इस क्षमा में उस अखंड का दर्शन नहीं होगा। अगर क्षमा आपका स्वभाव बन जाए, क्रोध संभव ही न हो, अक्रोध सहज हो जाए। कोई नींद में भी आपको डाल दे आपके भीतर कुछ, तो क्षमा ही बाहर आए। आपके रोएं-रोएं से आशीष ही बहने लगें, आपका कण-कण शुभकामना और मंगल से भर जाए, तो क्षमा है। कृष्ण कहते हैं, क्षमा मैं हूं, सत्य मैं हूं, इंद्रियों का वश में करना मैं हूं, मन का निग्रह मैं हूं। मन का निग्रह, इंद्रियों को वश में करना--इस संबंध में थोड़ी-सी बात खयाल में ले लें। एक, व्यापक रूप से गलत धारणा हमारे भीतर है। जब भी हम सोचते हैं, इंद्रियों को वश में करना, तो कोई संघर्ष, कोई युद्ध, कोई लड़ाई, कोई भीतरी कलह का खयाल आता है। जब भी हम सोचते हैं, मन का निग्रह करना, तो कोई जबरदस्ती, कोई दमन, कोई रिप्रेशन करने का खयाल मन में आता है।

वे बड़े गलत खयाल हैं। और जो व्यक्ति भी अपनी इंद्रियों को दुश्मन की तरह वश में करने जाएगा, वह मुसीबत में पड़ेगा। वह मालिक तो कभी न हो पाएगा, विक्षिप्त हो सकता है। और जो व्यक्ति जबरदस्ती अपने मन को ठोंक-पीटकर वश में करने की चेष्टा में लगेगा, उसका मन विद्रोही हो जाएगा, मन बगावती हो जाएगा; और मन उसे ऐसी जगह ले जाने लगेगा, जहां-जहां वह चाहता है कि मन न जाए। जहां-जहां चाहेगा कि न जाए मन, वहां-वहां जाने लगेगा। जहां-जहां रोकेगा मन, मन वहां-वहां और भी बहने लगेगा। इंद्रियों पर जितनी जबरदस्ती करेगा, उतना ही पाएगा कि एंद्रिक और सेंसुअल होता चला जा रहा है।

इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर कोई जबरदस्ती ब्रह्मचर्य को थोपने बैठ जाए, तो उसके चित्त में कामवासना जितनी भयंकर हो जाती है, तूफान ले लेती है, उतना किसी गहरे से गहरे कामी के मन में भी नहीं होती।

आपको पता होगा, अगर किसी दिन उपवास करें, तब आपको पता चलेगा कि भोजन की याद उपवास के दिन ही आती है। ऐसे भोजन की कोई याद आती है! आदमी भोजन कर लेता है और भूल जाता है। आप सड़क पर निकलते हैं, आपको कभी खयाल आया कि आप कपड़े पहने हुए हैं! एक दिन नग्न निकलकर सड़क पर देखें, तब आपको कपड़े ही कपड़े याद आएंगे।

जबरदस्ती किसी चीज को रोका जाए, तो वह स्मृति में गहन हो जाती है। जोर से आती है, प्रगाढ़ हो जाती है। उसका बल, उसकी ताकत बढ़ जाती है।
इंद्रिय-निग्रह या मन-निग्रह जबरदस्तियां नहीं हैं, वैज्ञानिक विधियां हैं। इसे खयाल में ले लें। वैज्ञानिक विधियां हैं। लड़ाई का सवाल नहीं है, समझ का सवाल है। और जो व्यक्ति मन से लड़ेगा, वह कभी मन का मालिक न होगा। जो व्यक्ति मन को समझेगा, वह मन का मालिक तत्काल हो जाएगा। समझ सूत्र है, दमन नहीं।

लेकिन हम लड़ते रहते हैं। एक आदमी को क्रोध आता है, तो वह क्रोध को दबाता है कि क्रोध करना अच्छा नहीं है। शास्त्र में पढ़ा है, गुरुओं से सुना है, क्रोध करना बुरा है। क्रोध आता है; अब वह क्या करे? उसे दबा लेता है। दबाया हुआ और भीतर पहुंच जाता है। दबाया हुआ और रग-रग, रोएं-रोएं में फैल जाता है। दबाया हुआ नए रास्तों से निकलना शुरू हो जाता है। दबाया हुआ धीरे-धीरे स्वभाव में जहर की तरह फैल जाता है।
इसलिए देखें आप, जो आदमी को यह वहम हो कि मैंने क्रोध पर काबू पा लिया है, उसके आप रोएं-रोएं में क्रोध को झलकता हुआ देखेंगे। जिस आदमी को खयाल हो कि मेरा अहंकार बिलकुल समाप्त हो गया है, मैं तो बिलकुल विनम्र हो गया हूं, उसकी आंख की झलक में, उसके चेहरे के भाव में, जगह-जगह आप अहंकार की छाप पाएंगे।
जिस आदमी को खयाल हो कि मैंने संसार को लात मार दी है, संसार को छोड़ दिया है, त्याग कर दिया है, उसको अगर आप थोड़ा भी गौर से देखेंगे, तो उसे संसार में इस बुरी तरह फंसा हुआ पाएंगे, जिसका हिसाब नहीं। संसार नहीं होगा उसके चारों तरफ, तो भी फंसा हुआ पाएंगे। क्योंकि एक छोटी-सी लंगोटी भी पूरा साम्राज्य बन सकती है।
जो दबाया जाता है, वह विषाक्त कर देता है।

नहीं; कृष्ण का अर्थ दमन से नहीं है। इसलिए जो दमित करेगा अपने को, वह तो और भी परमात्मा की झलक से दूर हो जाएगा। कृष्ण का प्रयोजन है रूपांतरण से, ट्रांसफार्मेशन से, एक क्रांति से, जो ज्ञान से संभव होती है।

जिस व्यक्ति को क्रोध के बाहर जाना हो, उसे क्रोध को समझना चाहिए, उसे क्रोध को पहचानना चाहिए। क्रोध ताकत है। जैसे आकाश में बिजली कौंधती है। एक दिन हम उससे डरते थे और घबड़ाते थे। आज वही बिजली प्रकाश देती है। एक दिन आकाश में कौंधती थी, तो हम घुटने टेककर जमीन पर, प्रार्थना करते थे, कि जरूर परमात्मा नाराज है, देवता रुष्ट हैं। आज उस बिजली को हमने बांध दिया। आज कोई आकाश में चमकती बिजली को देखकर घबड़ाता नहीं है, क्योंकि अब हम जानते हैं उस बिजली के विज्ञान को। क्रोध भी आपके भीतर कौंधती हुई बिजली है। और मजा तो यह है कि आकाश की बिजली को बांधने में हम समर्थ हो गए, आदमी के भीतर की बिजलियां अभी भी गैर-सम्हली पड़ी हैं।

क्रोध शक्ति है। अगर एक बच्चा ऐसा पैदा हो, जिसमें क्रोध हो ही नहीं, तो वह बच्चा जिंदा नहीं रह सकेगा; मर जाएगा। नपुंसक होगा; उसमें बल ही नहीं होगा। क्रोध शक्ति है। लेकिन शक्ति का दुरुपयोग हो सकता है, सदुपयोग हो सकता है। जब कोई उस शक्ति का दुरुपयोग करता है, तो जीवन नर्क हो जाता है। क्रोधी का जीवन शक्ति का दुरुपयोग है। और जब कोई उसी शक्ति का सदुपयोग करता है, तो वही शक्ति क्षमा बन जाती है। और क्षमाशील का जीवन स्वर्ग हो जाता है।

कृष्ण जब कहते हैं, इंद्रियों के निग्रह में मैं हूं, मनोनिग्रह में मैं हूं, तो उनका अर्थ है कि जो व्यक्ति इंद्रियों को जानकर, इंद्रियों को समझकर, ज्ञान से उनके पार हो जाता है; जो व्यक्ति मन को पहचानकर, मन के प्रति जागरूक होकर, मन के ऊपर उठ जाता है, उसे मेरी झलक मिलनी शुरू हो जाती है।

दमन से नहीं, रूपांतरण से। लड़कर नहीं, जानकर।
यह सूत्र थोड़ा बारीक है। क्योंकि जानने का क्या अर्थ? कभी आपने सोचा है कि आपने क्रोध को जाना? आप कहेंगे, बहुत जाना। रोज जानते हैं! लेकिन फिर भी मैं आपसे कहूंगा, आपने कभी नहीं जाना। क्योंकि जब क्रोध होता है, तब आपका जानना बिलकुल ही नहीं होता है। आपका जानना खो गया होता है। तब आप बिलकुल पागल होते हैं।

क्रोध जो है, वह अस्थायी पागलपन है। उस वक्त होश वगैरह आपके भीतर बिलकुल नहीं होता। उस वक्त आप जो करते हैं, वह आप करते हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। आप से होता है, ऐसा ही कहना ठीक है। क्योंकि क्रोध के बाद आप ही पछताते हैं और कहते हैं कि मेरे बावजूद, इंस्पाइट आफ मी, मुझसे हो गया। यह मैं सोचता तो नहीं था कि इस बच्चे को उठाकर खिड़की के बाहर फेंक दूंगा और यह मर जाएगा। यह मैंने सोचा ही नहीं था, लेकिन यह हो गया। यह मैंने किया नहीं है; यह हो गया है। लेकिन फिर किसने किया? क्रोध इतना हावी हो गया था कि आपकी चेतना बिलकुल खो गई थी और आप बिलकुल मूढ़ हो गए थे, सो गए थे, बेहोश थे।

एक मुसलमान खलीफा हारुन अल रशीद अपने घोड़े पर राजधानी से निकल रहा है बगदाद में। एक आदमी अपने छप्पर पर खड़े होकर खलीफा को गालियां देने लगा। अभद्र गालियां थीं। खलीफा ने सुना और अपने सिपाहियों को कहा कि कल सुबह इस आदमी को दरबार में पकड़कर ले आओ। वह आदमी उसी समय पकड़कर बंद कर दिया गया। दूसरे दिन सुबह उस आदमी को दरबार में लाया गया।

तो खलीफा ने उससे पूछा कि कल तुमने छप्पर के ऊपर खड़े होकर गालियां किस प्रयोजन से दी थीं? उस आदमी ने कहा कि क्षमा करें, जिसने गालियां दी थीं, वह अब मैं नहीं हूं। खलीफा ने कहा कि तुम वह नहीं हो? शक्ल मैं तुम्हारी ठीक से पहचानता हूं। और सिपाहियों ने कहा कि यही आदमी है। लेकिन उस आदमी ने कहा कि और सब ठीक है। शक्ल भी वही है। आदमी भी वही है एक अर्थ में। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं, वह मैं नहीं हूं, क्योंकि कल मैंने शराब पी रखी थी। और जब सुबह मैं होश में आया, तो मैंने सोचा, अरे, यह मैंने क्या किया!
खलीफा ने उसे मुक्त कर दिया।
लेकिन आपको पता है कि जब आप क्रोध में होते हैं, तब भी शराब आपके रग-रग रेशे-रेशे में दौड़ जाती है! अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि आपके शरीर के भीतर ग्रंथियां हैं जहर की। जब आप क्रोध में होते हैं, तो वे ग्रंथियां जहर को छोड़ देती हैं और आप बेहोश हो जाते हैं; केमिकली आप बेहोश हो जाते हैं।

तो आपने क्रोध को कभी जाना नहीं। क्योंकि जब क्रोध होता है, तब आप नहीं होते। और जब आप लौटते हैं, तब तक क्रोध जा चुका होता है। आपकी मुलाकात नहीं हुई है क्रोध से अभी। क्रोध को जानने का, या और वासनाओं को जानने का एक ही उपाय है कि जब क्रोध मौजूद हो, तब आप आंख बंद करें और क्रोध पर ध्यान करें कि यह क्या है? कैसे उठ रहा है? कहां से आया है? कहां जा रहा है? क्या प्रयोजन है? यह क्या है शक्ति? इसका क्या है रूप? यह क्या करना चाहता है?

लेकिन जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपकी नजर दूसरे पर होती है, जिसने क्रोध करवाया। उसी में आप चूक जाते हैं। जब आप क्रोध में हों, तो नजर अपने पर रखें। दूसरे को भूल जाएं, जिसने गाली दी। उससे तो घड़ीभर बाद भी मुलाकात हो सकती है। लेकिन यह क्रोध जो आपके भीतर है, यह घड़ीभर बाद नहीं होगा; यह बह गया होगा। फिर इससे मुलाकात नहीं होगी। इस मौके को मत चूकें।

गुरजिएफ ने लिखा है अपने संस्मरणों में कि मेरे पिता ने मरते वक्त मुझसे कहा था--एक छोटी-सी बात, वही मेरे जीवन में बदलाहट बन गई--उन्होंने मरते वक्त मुझसे कहा था कि मेरे पास देने को तुझे कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक छोटी-सी सलाह है, जिसने मेरी जिंदगी को सोना बना दिया, वह मैं तुझे देता हूं। और वह सलाह यह थी कि जब तुझे कभी कोई गाली दे, तो तू चौबीस घंटेभर बाद जवाब देना; चौबीस घंटे बाद जवाब देना, इसके पहले जवाब मत देना। उससे कह देना कि मैं आऊंगा। चौबीस घंटे का मुझे मौका दें, ताकि मैं सोचूं, विचारूं। मैं चौबीस घंटेभर बाद आकर जवाब दे दूंगा।

गुरजिएफ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मुझे जवाब देने का मौका कभी नहीं आया। चौबीस घंटे बहुत लंबा वक्त था, इतनी देर जहर टिकता नहीं। वह
तत्काल हो जाए, तो हो जाए।

मगर हम बड़े होशियार लोग हैं। अगर कोई भला काम करना हो, तो हम कहते हैं, जरा सोचेंगे। बुरा काम करना हो, तो हम बड़े तत्काल! फिर हम कभी नहीं कहते कि सोचेंगे। अगर कोई कहे कि एक दो पैसे दान कर दो, तो हम कहेंगे, सोचेंगे। और कोई एक गाली दे, तो हम कभी नहीं कहते कि जरा सोचेंगे। फिर सोचने का कोई सवाल नहीं है। फिर हम तत्काल! फिर हमसे ज्यादा त्वरा और तीव्रता में और जल्दी में कोई नहीं होता।

यह जल्दी क्या है, आपको पता नहीं। यह जल्दी केमिकल है, यह जल्दी रासायनिक है। वह जहर जो आपके खून में छूटा है, वह कहता है, जल्दी करो! क्योंकि अगर दो क्षण भी चूक गए, तो वह जहर तब तक खून में विलीन हो जाएगा। वह जहर जो आपकी नसों में फैलकर अकड़ गया है, वह कहता है, उठाओ घूंसा और मारो! क्योंकि अगर नहीं मारा, तो यह जहर तो बेकार चला जाएगा।

क्रोध जब हो, तब ध्यान का क्षण समझें। आंख बंद कर लें। बीच सड़क पर भी हों, तो वहीं आंख बंद कर, एक किनारे पर बैठकर ध्यान कर लें कि भीतर क्या हो रहा है! लोग शायद आपको पागल समझें, लेकिन आप पागल नहीं हैं। क्योंकि क्रोध को जो जान लेगा, वह सब पागलपन के ऊपर उठ जाता है। जब कामवासना आपको पकड़े, तब रुक जाएं। ध्यान करें उस पर। उस वासना को पहचानें भीतर से, क्या है? कौन-सी ऊर्जा भीतर उठकर इतना धक्का दे रही है कि आप पागल हुए जा रहे हैं?

तो आप बहुत शीघ्र उस ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, जिस ज्ञान में ये इंद्रिय-निग्रह, मनो-निग्रह सरलता से फलित हो जाते हैं। कृष्ण कहते हैं, वह भी मैं ही हूं।
वे कहते हैं, सुख और दुख, उत्पत्ति और प्रलय, भय और अभय भी मैं ही हूं।
इन तीन द्वंद्वों को एक साथ उपयोग करने का प्रयोजन है। हम सब सोचते हैं, हम सबने सोचा है बहुत बार कि परमात्मा आनंद है। लेकिन कभी सोचा है कि परमात्मा दुख भी है? यह सूत्र बहुत खतरनाक है।
कृष्ण कहते हैं, सुख भी मैं और दुख भी मैं।
हम सब सोचते हैं कि परमात्मा सुख का धाम है। परम सुख अगर चाहिए, तो परमात्मा की तरफ जाओ। लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि सुख भी मैं और दुख भी मैं! तो क्या वे वेदों की, उपनिषदों की जो परम उक्ति है, सच्चिदानंद की, उसके खिलाफ बोल रहे हैं? नहीं; उसके खिलाफ नहीं बोल रहे हैं। लेकिन अगर उस तक जाना हो, तो इस सूत्र को मानकर चलने वाला ही उस तक पहुंचता है, जहां परमात्मा मात्र आनंद रह जाता है। इस सूत्र को मानने वाला--सुख और दुख, दोनों में जो परमात्मा को देखता है, वह एक दिन परम आनंद को उपलब्ध होता है।

हम सुख में तो परमात्मा को देख सकते हैं, लेकिन दुख में! दुख में नहीं देख सकते। और जो दुख में नहीं देख सकता, वह समता को उपलब्ध नहीं होगा, शांति को उपलब्ध नहीं होगा। लेकिन जो दुख में भी देख सकता है, वह समता को उपलब्ध हो जाएगा। अगर आपको दुख में भी परमात्मा दिखाई पड़े, तो आप दुख से भागना न चाहेंगे। परमात्मा से कोई भागना चाहता है? अगर दुख में परमात्मा दिखाई पड़े, तो आप प्रार्थना न करेंगे कि दुख से मुझे छुड़ाओ! क्योंकि परमात्मा से कोई छूटना चाहता है?

और जिसको दुख में भी परमात्मा दिखाई पड़ जाए, उसके लिए फिर कोई दुख जगत में नहीं रह जाएगा। क्योंकि दुख का मतलब ही तभी तक है, जब तक हम उससे बचना चाहते हैं, भागना चाहते हैं। जिस दिन कोई दुख को भी आलिंगन करके गले लगा ले; और जिस दिन दुख को भी कोई कहे कि प्रभु आए द्वार मेरे, स्वागत है; उस दिन फिर कोई दुख नहीं बचेगा। और जिसके जीवन में कोई दुख नहीं बचता, उसके जीवन में सभी कुछ सुख हो जाता है।

हमारे जीवन में दुख से बचने की और सुख को पकड़ने की आकांक्षा होती है। लेकिन परिणाम क्या है? परिणाम इतना है कि दुख ही दुख हो जाता है; सुख तो कहीं मिलता नहीं।

कृष्ण कहते हैं, सुख भी मैं, दुख भी मैं; उत्पत्ति भी मैं, प्रलय भी मैं; जन्म भी मैं, मृत्यु भी मैं। सारे द्वंद्व मैं हूं। भय भी मैं, अभय भी मैं। जहां-जहां द्वंद्व दिखाई पड़ें, दोनों में मैं ही हूं। ऐसा जो मुझे देखेगा, वह आगे के सूत्रों को समझना और आसान हो जाएगा।
तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अपकीर्ति, ऐसे ये जो नाना प्रकार के भाव प्राणियों में होते हैं, वे मेरे से ही होते हैं। और हे अर्जुन, सात महर्षिजन, और चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायंभुव आदि चौदह मनु, ये मेरे भाव वाले सब के सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए, जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है।

इस सूत्र का अर्थ है कि जितने भी जानने वाले हुए हैं अब तक, जिन्होंने भी जाना है इस सत्य को, इस जीवन को, वे भी मेरे ही संकल्प थे, मेरे ही भाव थे; वे भी मुझसे अलग नहीं हैं। जिन्होंने भी कभी उस परम अनुभव को पाया है, चाहे वे पहले हुए ऋषि-महर्षि हों, चाहे मनु आदि हों, वे सब भी मेरे ही भाव की अवस्थाएं हैं।

कृष्ण यह कह रहे हैं कि इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम फूल खिलते हैं अनुभव के, वे सब मेरी ही सुगंध से परिव्याप्त हैं। और जब भी कोई अपनी परम दशा में पहुंचता है, तो मुझको ही उपलब्ध हो जाता है।

लेकिन उस परम दशा में वे ही लोग पहुंच पाते हैं, जो द्वंद्व के बीच अपने को समता में ठहरा लेते हैं। जो दो के बीच चुनाव नहीं करते, जो यह नहीं कहते कि हमें सुख चाहिए, दुख नहीं चाहिए। जो कहते हैं, दुख में भी तू है, और सुख में भी तू है। जो यह नहीं कहते कि जन्म तो प्यारा है, जीवन तो प्यारा है; मृत्यु नहीं चाहिए, हमें तो अमर जीवन चाहिए। जो ऐसा नहीं कहते हैं। जो कहते हैं, मृत्यु भी तेरी, जन्म भी तेरा। दोनों हमें प्रीतिकर हैं, क्योंकि दोनों ही तेरे हैं।

इस जगत में जो चुनाव नहीं करते हैं, इस जगत में जो च्वाइसलेस, चुनावरहित जीने के उपक्रम में प्रवेश करते हैं, वे सभी, चाहे किसी काल में हुए हों, वे सभी महर्षिगण, मुझको ही, मेरे ही संकल्प को, मेरे ही भाव को उपलब्ध होते हैं। कहें कि वे मेरे ही भाव के अंश हैं, वे मेरी ही लहरें हैं। लेकिन वे ऐसी लहरें हैं, जो मेरे सागर होने को भी अनुभव कर लेती हैं।


ओशो: द ग्रेट पिलग्रिमेज़: फ्राम हियर टू हियर, अध्याय 24