Monday 11 April 2011

नेहरू के किस एहसान को कास्त्रो नहींं भूले

नेहरू के किस एहसान को कास्त्रो नहींं भूले

Image copyबात 1960 की है. मौका था संयुक्त राष्ट्र संघ की पंद्रहवी वर्षगांठ का. दुनिया भर के चोटी के नेता न्यूयॉर्क में जमा हुए थे. जब फ़िडेल कास्त्रो न्यूयार्क पहुंचे तो ये जान कर उन्हें बहुत बड़ा धक्का लगा कि वहाँ का को
भारत के पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने बीबीसी के बताया कि जब मैं कास्त्रो से मिला तो उन्होंने मुझसे कहा, “क्या आप को पता है कि जब मैं न्यूयार्क के उस होटल में रुका तो सबसे पहले मुझसे मिलने कौन आया? महान जवाहरलाल नेहरू. मेरी उम्र उस समय 34 साल थी. अंतरराष्ट्रीय राजनीति का कोई तजुर्बा नहीं था मेरे पास. नेहरू ने मेरा हौसला बढ़ाया जिसकी वजह से मुझमें ग़ज़ब का आत्मविश्वास जगा. मैं ताउम्र नेहरू के उस एहसान को नहीं भूल सकता.”
नेहरू और फ़िडेल की उस मुलाक़ात के बाद भारत के लिए उनके मन में जो सम्मान और स्नेह पैदा हुआ उसमें कभी कमी नहीं आई. 1983 में जब भारत में गुटनिरपेक्ष सम्मेलन हुआ तो फ़िडेल कास्त्रो यहाँ आए. सम्मेलन की शुरुआत में ही फ़लस्तीनी नेता यासर अराफ़ात इस बात पर नाराज़ हो गए कि उनसे पहले जॉर्डन के शाह को भाषण देने का मौक़ा दिया गया. भारत के पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह उस सम्मेलन के सेक्रेट्री जनरल थे.
नटवर कहते हैं, “उस सम्मेलन में सुबह के सत्र में फ़िडेल कास्त्रो अध्यक्ष थे. उसके बाद इंदिरा गांधी अध्यक्ष बन गईं थीं. सुबह के सत्र के बाद मेरे डिप्टी सत्ती लांबा मेरे पास दौड़े हुए आए और बोले बहुत बड़ी आफ़त आ गई है. यासेर अराफ़ात बहुत नाराज़ हैं और तुरंत ही अपने विमान से वापस जाना चाहते हैं. मैंने इंदिरा जी को फ़ोन किया और कहा कि आप फ़ौरन विज्ञान भवन आ जाइए और अपने साथ फ़िडेल कास्त्रो को भी लेते आइए.”
नटवर आगे बताते हैं, “कास्त्रो साहब आए और उन्होंने फ़ोन कर यासर अराफ़ात को भी बुला लिया. उन्होंने अराफ़ात से पूछा आप इंदिरा गाँधी को अपना दोस्त मानते हैं कि नहीं. अराफ़ात ने कहा, दोस्त नहीं... वो मेरी बड़ी बहन हैं. इस पर कास्त्रो ने तपाक से कहा तो फिर छोटे भाई की तरह बरताव करो और सम्मेलन में भाग लो.” अराफ़ात इंदिरा गांधी और फ़िडेल को मना नहीं कर पाए और शाम के सत्र में भाग लेने के लिए पहुंच गए.
इसी सम्मेलन के उस दृश्य को कौन भूल सकता है जब फ़िडेल कास्त्रो ने विज्ञान भवन के मंच पर ही सरेआम इंदिरा गाँधी को गले लगा लिया था. मशहूर पत्रकार सईद नक़वी कहते हैं, “इंदिरा गांधी को फ़िडेल ने छाती से लगा लिया. वो लजाई शर्माई दुल्हन बन गईं बिल्कुल. उनकी समझ में ही नहीं आया कि क्या करें. लेकिन वो इंदिरा को नेहरू की बेटी के रूप में देखते थे.”
सईद नक़वी को 1990 में फ़िडेल कास्त्रो से इंटरव्यू करने का मौका मिला था. नक़वी याद करते हैं, “बड़ी मुश्किल से इंटरव्यू देने के लिए वो राज़ी हुए. हम क्यूबा पहुंचे. वहाँ पर हमेशा संस्पेंस रहता है. वो आपको कमरे में बैठा लेते हैं और फिर कहते हैं कि आप बाहर नहीं जा सकते हैं क्योंकि फ़िडेल के दफ़्तर से किसी समय भी फ़ोन आ सकता है. फिर मुझसे रात में तैयार रहने के लिए कहा गया. मैं समझा कि शरीफ़ आदमी छह या सात या बहुत हुआ आठ बजे बुलाएगा.”
नक़वी आगे बताते हैं, “लेकिन उन्होंने मुझे रात दस बजे बुलाया. उनकी गाड़ी आई मुझे लेने. वहां भी एक साइड रूम में हम बैठे. घंटे भर बाद कास्त्रो प्रकट हुए. मैं समझा कि वो मुझे सिगार पेश करेंगे. लेकिन पता चला कि उन्होंने सिगार पीना छोड़ दिया था. उन्होंने एक ब्रांडी अपने लिए बनाई और एक मेरे लिए. वो ग़ोया इसके ज़रिए मुझसे रैपो कायम करने की कोशिश कर रहे थे. डेढ़ घंटे शुरुआती बातचीत में ही लग गए. उन्होंने मुझे ताड़ लिया और मैंने भी उनको नाप लिया.”
“हमारी जो दुभाषिया थी, वो साहब जादूगरनी थी. ये बिल्कुल एहसास नहीं होता था कि वो हमारी बातचीत का अनुवाद कर रही हैं. ग़ालिब का मिसरा है... मैंने जाना कि ग़ोया ये भी मेरे दिल में है... उस पर पूरी तरह लागू होता था. कास्त्रो ने बोला, और क्विक फ़ायर अनुवाद हुआ... बिना किसी ग़ल्ती के. फ़िडेल अंग्रेज़ी के कुछ शब्द समझते थे लेकिन जवाब हमेशा क्यूबाई स्पेनिश में देते थे. फ़िडेल के साथ ये नहीं था कि आप पंद्रह बीस मिनट में इंटरव्यू ख़त्म कर दें. आप फंसे तो फिर फंसे. उनसे कोई गुफ़्तगू तीन चार घंटे से कम नहीं हो सकती.”
फ़िडेल के साथ कुछ इसी तरह का तजुर्बा कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु के साथ हुआ था. वो 1993 में जब क्यूबा की यात्रा पर गए थे तो उनके साथ मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी भी थे.
बीबीसी से बात करते हुए येचुरी ने बताया, “1993 में ज्योति बसु को क्यूबा आने का निमंत्रण मिला था. यात्रा के दौरान हम और ज्योति बाबू खाना खाने के बाद सोने की तैयारी कर रहे थे तभी अचानक संदेश आया कि फ़िडेल कास्त्रो उनसे मिलना चाहते हैं. ज्योति बाबू बोले इस समय क्या मिला जाए, सुबह मिलेंगे. लेकिन संदेशवाहक ने कहा कि फ़िडेल अपने दफ़्तर में आपका इंतज़ार कर रहे हैं. हम आधी रात के आसपास बंद गले का सूट पहन कर उनसे मिलने पहुँचे.”
सीता राम येचुरी बताते हैं कि वो बैठक डेढ़ घंटे चली, “कास्त्रो हमसे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे. भारत कितना कोयला पैदा करता है? वहाँ कितना लोहा पैदा होता है? वगैरह वगैरह...एक समय ऐसा आया कि ज्योति बसु ने बंगाली में मुझसे कहा, "एकी आमार इंटरव्यू नीच्चे ना कि"(ये क्या मेरा इंटरव्यू ले रहे हैं क्या?). ज़ाहिर है ज्योति बसु को वो आँकड़े याद नहीं थे. तब फ़िडेल ने मेरी तरफ़ रुख़ कर कहा भाई ये तो बुज़ुर्ग हैं. आप जैसे नौजवानों को तो ये सब याद होना चाहिए. तब से जब भी मैं क्यूबा जाता हूँ, भारत की आर्थिक स्थिति के बारे में आँकड़ों की हैंडबुक हमेशा अपनी जेब में रखता हूँ.”
अगले दिन जब ज्योति बसु भारत वापस जाने के लिए हवाना हवाई अड्डे पर पहुंचे तो उन्हें वीआईपी लाउंज में बैठाया गया. अचानक लाउंज को खाली करा दिया गया. समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों किया जा रहा है?
येचुरी बताते हैं, “अचानक हमने देखा कि फ़िडेल चले आ रहे हैं हमें विदा करने के लिए. मुझे याद है मेरे कंधे पर एक बैग लटका हुआ था. फ़िडेल हमेशा की तरह अपनी सैनिक यूनिफ़ार्म मे थे. उनकी वर्दी से एक पिस्तौल लटकी हुई थी. उन्होंने मुझसे पूछा कि मेरे बैग में क्या है? मैंने जवाब दिया कुछ किताबें हैं इसमें. फ़िडेल बोले तुम तो आ गए लेकिन मेरे सामने कोई बैग ले कर नहीं आता. पता नहीं इसमें क्या रखा हो? सीआईए ने मुझे पता नहीं कितनी बार मारने की कोशिश की है.”
येचुरी कहते हैं, “मैंने कहा आपके पास तो पिस्तौल है. अगर कोई आप पर हमला करे तो आप उस पर इसे चला सकते हो. जब फ़िडेल ने मुस्कराते हुए कहा ये राज़ समझ लो आज. ये पिस्तौल हमने अपने दुश्मनों को डराने के लिए रखी है. लेकिन इस पिस्तौल में गोली कभी नहीं होती.”
इसी तरह 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जब क्यूबा की आर्थिक स्थिति ख़राब हो गई तो कम्यूनिस्ट नेता हरकिशन सिंह सुरजीत ने पार्टी की तरफ़ से क्यूबा को दस हज़ार टन गेहूँ भिजवाने का बीड़ा उठाया.
सीताराम येचुरी याद करते हैं, “ये काम कामरेड सुरजीत ही कर सकते थे. उन्होंने जब देखा कि सोवियत संघ बिखर गया है. क्यूबा की स्थिति बहुत गंभीर थी क्योंकि उनकी पूरी अर्थव्यवस्था सोवियत संघ पर निर्भर थी. क्यूबा के ऊपर प्रतिबंध लगा हुआ था जिसके कारण वो अपना सामान दुनिया में कहीं और नहीं भेज सकते थे. उस समय उन्हें मदद की सख़्त ज़रूरत थी. उनके पास नहाने के लिए साबुन नहीं था और न ही खाने के लिए गेहूँ.”
येचुरी आगे बताते हैं, “कामरेड सुरजीत ने ऐलान कर दिया कि वो दस हज़ार टन गेहूं क्यूबा को भेजेंगे. उन्होंने लोगों से अनाज जमा किया और पैसे जमा किए. उस ज़माने में नरसिम्हा राव की सरकार थी. उनके प्रयासों से पंजाब की मंडियों से एक विशेष ट्रेन कोलकाता बंदरगाह भेजी गई. मुझे अभी तक याद है उस शिप का नाम था कैरिबियन प्रिंसेज़. उन्होंने नरसिम्हा राव से कहा कि हम दस हज़ार टन गेहूँ भेज रहे हैं तो सरकार भी इतने का ही योगदान दे. सरकार ने भी इतना ही गेहूँ दिया. उसके साथ दस हज़ार साबुन भी भेजे गए. वहाँ पर जब वो पोत पहुंचा तो उसे रिसीव करने के लिए फ़िडेल कास्त्रो ने ख़ास तौर से सुरजीत को बुलवाया. उस मौके पर कास्त्रो ने कहा कि सुरजीत सोप और सुरजीत ब्रेड से क्यूबा ज़िंदा रहेगा कुछ दिनों तक.”
केंद्र में मंत्री और दो राज्यों की राज्यपाल रहीं मारग्रेट अल्वा को भी फ़िडेल कास्त्रो से कई बार मिलने का मौका मिला था. अल्वा याद करती हैं, “एक बार भोज के बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि आपका वज़न कितना है? मैंने कहा मैं आपको क्यों बताऊँ? हमारे यहाँ भारत में कहावत है कि उस चीज़ के बारे में हरगिज़ न बताया जाए जिसे साड़ी छुपा सकती है. इससे कई पाप छुपाए जा सकते हैं. फ़िडेल ज़ोर से हँसे और अगले ही क्षण उन्होंने मेरी कमर पर हाथ रखते हुए कहा मैं तुमको उठा कर बता सकता हूँ कि तुम्हारा वज़न कितना है.”
अल्वा आगे कहती हैं, “मैंने कहा यॉर एक्सलेंसी आप ऐसा मत करिए. आप जितना सोचते हैं उससे मैं कहीं अधिक भारी हूँ. इससे पहले कि मैं अपना वाक्य पूरा कर पाती, उन्होंने मुझे ज़मीन से एक फ़ुट ऊपर उठा लिया. फिर वो ज़ोर से हंस कर बोले, अब मुझे मालूम है तुम्हारा वज़न किता है. मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया.”
मार्ग्रेट अल्वा बताती हैं, “एक दूसरी मुलाक़ात में फ़िडेल ने मुझसे पूछा अगर स्पेनिश लोग क्यूबा में न उतर कर भारत में उतरे होते, तो इतिहास क्या होता? मैंने छूटते ही जवाब दिया, फ़िडेल कास्त्रो एक भारतीय होते. ये सुनना था कि फ़िडेल ने अपना चिरपरिचित ठहाका लगाया, ज़ोर से मेज़ को थपथपाया और बोले, ये मेरे लिए खुशकिस्मती की बात होती! भारत एक महान देश है.”

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