Friday 5 August 2011

कर्म-osho


श्रान्त नहीं हो पाते। विश्रान्ति एक फूल खिलने के समान है: तुम इसे मजबूर नहीं कर सकते। तुम्हें पूरी घटना को समझना होगा। तुम इतने सक्रिय क्यों हो, सक्रियता की इतनी आतुरता क्यों, इसके लिए इतना पागलपन क्यों?

दो शब्द याद रखें: एक कर्म है, दूसरा कृत्य है। कर्म कृत्य नहीं है; कृत्य कर्म नहीं है। इनकी प्रकृति पूर्णतया विपरीत है। परिस्थिति की मांग पर कर्म होता है, तुम कार्य करते हो, प्रतिसंवेदन करते हो। कृत्य में परिस्थिति का महत्व नहीं है, यह प्रतिसंवेदन नहीं है; तुम्हारे अन्दर इतनी बेचैनी है, परिस्थिति तो कार्य करने का बहाना हैं।

कर्म शांत मन से आता है। यह संसार की सबसे खूबसूरत चीज है। कृत्य अशांत मन से आता है। यह बदसूरत है। ज्यादा कर्म करें, और कृत्यों को अपने आप छूट जानें दें। तुम्हारे अन्दर धीरे-धीरे रूपांतरण आयेगा। यह समय लेगा, इसे पकने दें, लेकिन कोई जल्दी भी नहीं है।

अब तुम समझ सकते हो विश्रान्ति क्या है। इसका मतलब है कि तुममें कृत्य की कोई उत्तेजना नहीं है। एक मरे हुए इन्सान की भांति लेट जाना विश्रान्ति नहीं है; और तुम मरे हुए इन्सान की भांति लेट भी नहीं सकते; तुम केवल दिखावा कर सकते हो। जब कृत्य की कोई उत्तेजना नहीं होगी तो विश्रान्ति आएगी; ऊर्जा केन्द्र पर है, कहीं नहीं जा रही है। यदि कोई परिस्थिति आती है तो तुम कर्म करोगे, यही सब कुछ है, लेकिन तुम कार्य करने का कोई बहाना नहीं ढूंढ रहे हो। तुम अपने आप में सहज हो। विश्रान्ति का अर्थ है तुम घर लौट आए।

विश्रान्ति सिर्फ शरीर की नहीं है, यह सिर्फ मन की भी नहीं है, यह तो तुम्हारे पूरे अंतस की है।

तुम कृत्य में बहुत ज्यादा उलझे हो; अवश्य ही थक गये हो, छितर गये हो, शुष्क हो गये हो, जम गये हो। जीवन की ऊर्जा गतिशील नही है। वहां सिर्फ बाधाएं ही बाधाएं हैं। और जब भी तुम कुछ करते हो उसे एक पागलपन में करते हो। इसीलिए विश्राम करने की जरुरत पैदा हो जाती है। इसीलिए हर महीने इतनी सारी किताबें विश्रान्ति के संबंध में लिखी जाती हैं। और मैंने एक भी आदमी ऐसा नहीं देखा जो विश्रान्ति के संबंध में किताब पढ़कर विश्रान्त हुआ हो। उसका जीवन और भी ज्यादा व्यस्त हो जाता है क्योंकि अब उसकी कृत्यों वाली जिंदगी अछूती रह जाती है। उसकी कार्यशील रहने की धुन वही है, बीमारी वही है, और वह विश्रान्त रहने का दिखावा करता है इसलिए लेट जाता है। अन्दर हलचल मची है, एक ज्वालामुखी फटने को तैयार है और वह विश्रान्त हो रहा है, एक किताब, ' कैसे विश्रान्त हों,' में लिखे निर्देशों का पालन कर।

जब तक तुम अपने अंतरतम को नहीं पढते तब तक ऐसी कोई किताब नहीं, जो विश्रान्त होने में तुम्हारी मदद कर सके, और तब विश्रान्ति जरूरी भी नहीं होती। विश्रान्ति एक अभाव है, कृत्य का अभाव, कर्म का नहीं।

कुछ मत करो! योग की किसी मुद्रा की जरुरत नहीं है, शरीर को तोड़ने-मरोड़ने की जरुरत नहीं है। कुछ न करो!, केवल कृत्यविहीनता चाहिए। यह कैसे आएगी? यह समझने से आयेगी।

समझ एकमात्र अनुशासन है। अपने कृत्यों को समझो और अचानक ही कृत्यों के बीच, यदि तुम सचेत हो जाते हो, तो वह रुक जायेगी। तिलोपा का मतलब यही है--यह रुकना।

विश: एक कर्म है, दूसरा कृत्य है। कर्म कृत्य नहीं है; कृत्य कर्म नहीं है। इनकी प्रकृति पूर्णतया विपरीत है। परिस्थिति की मांग पर कर्म होता है, तुम कार्य करते हो, प्रतिसंवेदन करते हो। कृत्य में परिस्थिति का महत्व नहीं है, यह प्रतिसंवेदन नहीं है; तुम्हारे अन्दर इतनी बेचैनी है, परिस्थिति तो कार्य करने का बहाना हैं।

कर्म शांत मन से आता है। यह संसार की सबसे खूबसूरत चीज है। कृत्य अशांत मन से आता है। यह बदसूरत है। ज्यादा कर्म करें, और कृत्यों को अपने आप छूट जानें दें। तुम्हारे अन्दर धीरे-धीरे रूपांतरण आयेगा। यह समय लेगा, इसे पकने दें, लेकिन कोई जल्दी भी नहीं है।

अब तुम समझ सकते हो विश्रान्ति क्या है। इसका मतलब है कि तुममें कृत्य की कोई उत्तेजना नहीं है। एक मरे हुए इन्सान की भांति लेट जाना विश्रान्ति नहीं है; और तुम मरे हुए इन्सान की भांति लेट भी नहीं सकते; तुम केवल दिखावा कर सकते हो। जब कृत्य की कोई उत्तेजना नहीं होगी तो विश्रान्ति आएगी; ऊर्जा केन्द्र पर है, कहीं नहीं जा रही है। यदि कोई परिस्थिति आती है तो तुम कर्म करोगे, यही सब कुछ है, लेकिन तुम कार्य करने का कोई बहाना नहीं ढूंढ रहे हो। तुम अपने आप में सहज हो। विश्रान्ति का अर्थ है तुम घर लौट आए।

विश्रान्ति सिर्फ शरीर की नहीं है, यह सिर्फ मन की भी नहीं है, यह तो तुम्हारे पूरे अंतस की है।

तुम कृत्य में बहुत ज्यादा उलझे हो; अवश्य ही थक गये हो, छितर गये हो, शुष्क हो गये हो, जम गये हो। जीवन की ऊर्जा गतिशील नही है। वहां सिर्फ बाधाएं ही बाधाएं हैं। और जब भी तुम कुछ करते हो उसे एक पागलपन में करते हो। इसीलिए विश्राम करने की जरुरत पैदा हो जाती है। इसीलिए हर महीने इतनी सारी किताबें विश्रान्ति के संबंध में लिखी जाती हैं। और मैंने एक भी आदमी ऐसा नहीं देखा जो विश्रान्ति के संबंध में किताब पढ़कर विश्रान्त हुआ हो। उसका जीवन और भी ज्यादा व्यस्त हो जाता है क्योंकि अब उसकी कृत्यों वाली जिंदगी अछूती रह जाती है। उसकी कार्यशील रहने की धुन वही है, बीमारी वही है, और वह विश्रान्त रहने का दिखावा करता है इसलिए लेट जाता है। अन्दर हलचल मची है, एक ज्वालामुखी फटने को तैयार है और वह विश्रान्त हो रहा है, एक किताब, ' कैसे विश्रान्त हों,' में लिखे निर्देशों का पालन कर।

जब तक तुम अपने अंतरतम को नहीं पढते तब तक ऐसी कोई किताब नहीं, जो विश्रान्त होने में तुम्हारी मदद कर सके, और तब विश्रान्ति जरूरी भी नहीं होती। विश्रान्ति एक अभाव है, कृत्य का अभाव, कर्म का नहीं।

कुछ मत करो! योग की किसी मुद्रा की जरुरत नहीं है, शरीर को तोड़ने-मरोड़ने की जरुरत नहीं है। कुछ न करो!, केवल कृत्यविहीनता चाहिए। यह कैसे आएगी? यह समझने से आयेगी।

समझ एकमात्र अनुशासन है। अपने कृत्यों को समझो और अचानक ही कृत्यों के बीच, यदि तुम सचेत हो जाते हो, तो वह रुक जायेगी। तिलोपा का मतलब यही है--यह रुकना।

विश्रान्ति का मतलब है कि यह क्षण जरुरत से ज्यादा है, इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं रखी जा सकती है। कुछ पूछने को नहीं है, यही जरुरत से ज्यादा है, तुम जितनी इच्छा कर सकते हो उससे कहीं ज्यादा। तब ऊर्जा कहीं भी नहीं बहेगी।वह एक निस्तब्ध सरोवर बन जाती है। तुम अपनी ही ऊर्जा में घुल जाते हो। यह क्षण विश्रान्ति है। विश्रान्ति न तो शरीर की है न ही मन की, यह तो पूरे की है। इसीलिए बुद्ध कहते आ रहे हैं, इच्छा विहीन बन, क्योंकि वे जानते हैं कि यदि इच्छा होगी तो तुम विश्रान्त नहीं हो सकते।

विश्रान्ति एक मुद्रा नहीं है, विश्रान्ति तो तुम्हारी सम्पूर्ण ऊर्जा का बदलाव है।

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