Friday 21 October 2011

मेरी कविता:-हाँ तुम मुर्दा हो गए हो .....

हाँ तुम मुर्दा हो गए हो .....
 
 क्या तुम बहरे हो
जो नही सुनाई पड़ती चीखें
उन बेबस और लाचारों की
जिन पर जोर जुल्म ढाया जा रहा है ।
क्या तुम अंधे हो
जो नही दिखाई पड़ता है अत्याचार
लूट ,हत्या ,अपहरण और बलात्कार
जो अक्सर तुम्हारे सामने हो रहा है
क्या तुम लुल्हे हो
जो नही करते हो प्रहार
उन कारणों के खिलाफ
जो तुम्हारा सुख चैन लूट रहा है
क्या तुम गूंगे हो
जो नही करते हो प्रतिकार
उन जालिमों के खिलाफ
जो तुम्हारा सपना मिटा रहा है
तुम अंधे, बहरे, लुल्हे और गूंगे ही नहीं
हाँ तुम मुर्दा हो गए हो
जो चुप चाप सह रहे हो
ये सारा भ्रष्टाचार  ......


  

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