Friday, 21 October 2011

मेरी कविता :- विडम्बना

 विडम्बना 

लोग मानते हैं कि
भगवान की मर्जी बगैर
एक पत्ता भी नहीं हिलता
पर मैं नहीं मानता
रोज़ बहुत कुछ
ऐसा होता है
जिसे भगवान तो क्या
भला आदमी भी पसंद नहीं करता ।


चोर उचक्के अमीर बन रहे हैं
अच्छे भले फटेहाल हो रहे हैं
काली करतूत वाले सफेदपोश बनकर
सत्ता से मौज उड़ा रहे हैं ।
बच्चे अनाथ हो रहे हैं
औरतों की मांगे सुनी हो रही हैं
बलात्कार, अपहरण , हत्या, तो सरेआम है
कुव्यवस्था की हद हो गई है ।
फिर भी लोग कह रहे हैं
भगवान की इच्छा के बिना
कोई कुछ भी नहीं कर सकता 


है कोई जो कह सके मेरे अलावा ?
या तो इस कथन में दम नहीं
या फिर कोई भगवान नहीं......

        -राघवेन्द्र सिंह कुशवाहा


No comments:

Post a Comment